चाह कर भी अपने
स्वभाव में कभी गंभीरता नहीं ला सके. जो पल अभी है, वही ज़िन्दगी है का फलसफा
अपनाते हुए अपनी जीवन-यात्रा पर आगे बढ़ते रहे.इसका अर्थ ये नहीं कि हमारे द्वारा
किसी कार्य को करने में, जिम्मेवारी का निर्वहन करने में, अपने उद्देश्य को पूरा
करने में किसी तरफ की कोताही दिखाई जाती है. यह सब पूरी लगन और निष्ठा के साथ किया
जाता है, पर हँसी-माजक के साथ, माहौल को हल्का-फुल्का बनाते हुए. पता नहीं क्यों
गंभीर मुद्रा, हाव-भाव का लबादा ओढ़े, चेहरे पर जानबूझकर कठोरता चढ़ाये, होंठों को
इतनी बुरी तरह कसे कि मुस्कान धोखे से ही न फिसल जाये, ऐसे लोग कभी नहीं सुहाए. ऐसी
गंभीरता वाली मुद्रा को कभी भी वरीयता नहीं दी और अपनी ज़िन्दगी का वर्तमान पूरी
मौज-मस्ती के साथ जीते रहे.
हमने ज़िन्दगी
को जितना गंभीरतारहित होकर, अल्हड़ता से, मौज-मस्ती के अंदाज में जीना चाहा,
ज़िन्दगी उतनी ही गंभीरता से हमारा परीक्षण करती रही. कह सकते हैं कि हम उसके प्रति
गंभीर नहीं रहे और वह भी हमारे प्रति गंभीर नहीं रही. हम दोनों एक-दूसरे के साथ
खेलते रहे, एक-दूसरे के होकर भी एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी बने रहे. यह
प्रतिद्वंद्विता पढ़ाई में, सामाजिक जीवन में, पारिवारिक जीवन में, रोजगार में,
अपने उद्देश्यों में बराबर देखने को मिलती रही.
यही कारण है कि
शिक्षा की नींव किसी और विषय से भरी गई और उस पर इमारत किसी और विषय की बन गई. जब
अवसर आया उसे सजाने का तो रंग-रोगन किसी और विषय का हो गया. विज्ञान स्नातक के
दौरान ही सिविल सेवा में जाने का कीड़ा कुलबुलाया. इससे पहले कि यह कीड़ा पूरी तरह
से काट पाता एमबीए और एमसीए के चुनाव में लोगों की सलाह के बीच झूलते रहे. व्यवसाय
प्रबंधन और कंप्यूटर के चयन के बीच स्नातक के बाद परास्नातक में प्रवेश लेने की
यात्रा कब अंग्रेजी से राजनीति विज्ञान, राजनीति विज्ञान से अर्थशास्त्र में
पहुँचकर थमी, पता नहीं चला.
इधर-उधर
हाथ-पैर मारे जाते रहे. कतिपय कारण ऐसे बने कि एमबीए की तरफ तो बढ़ ही न सके, इन्हीं
कारणों से पत्रकारिता का कोर्स भी छोड़ना पड़ा. पता नहीं उरई हमारे भीतर बसा था या
उरई को हमारी आवश्यकता थी. न हम यहाँ से निकल पाए और न उसने हमें यहाँ से जाने
दिया. ऐसा इसलिए क्योंकि ग्वालियर स्नातक के लिए जाने के बाद भी उरई वापस आना हुआ.
उसके बाद दो बार नौकरी एवं अन्य कार्यों के चलते बाहर जाना पड़ा किन्तु चंद दिनों
बाद ही खुद को उरई में ही पाया.
इस जाने-आने के
क्रम में, डिग्रियाँ बटोरने के क्रम में चार विषय से परास्नातक हो गए. कई जगह के
साक्षात्कार हो गए. नौकरी करते-छोड़ते रहे. पत्रकारिता में भी हाथ-पैर चलाते रहे.
लेखन में जुटे रहे. इन सबके बीच सिविल सेवा का कीड़ा कुलबुलाने के साथ काटने भी
लगा. उरई के अल्प-संसाधनों के बीच अपनी जगह तलाशते हुए उस तरफ बढ़ लिए. तैयारी
जितनी आगे बढ़ती, तमाम सामग्री की अनुपलब्धता में वापस धकेल देती. समस्याओं और
परेशानियों को महसूस तो कर पा रहे थे किन्तु उनका समाधान हम खुद निकाल पाने में
असमर्थ लग रहे रहे थे. कभी खुद को आर्थिक आधार की तलाश में खड़ा पाते तो कभी इसे
समय की बर्बादी समझ फिर से अपनी तैयारी में घुस जाते. आर्थिक आधार की अनुपलब्धता
ने जिन्दगी के उन सारे सपनों पर भी अंकुश लगा रखा था जिसे एक युवा दिल देखता है,
सजाता है. ज़िन्दगी के लिए, ज़िन्दगी से बड़े सपने सजाये जाते मगर उन्हें धरालत पर
उतारने से पहले जब वास्तविकता की कसौटी पर कसते तो सारे सपने बिखर जाते.
बिखरे सपनों के
साथ ख़ामोशी से, ऊहापोह की इस अवस्था में खुद को खुद के लिए खड़ा करना था. हम चाह
कुछ रहे थे पर समय हमसे कुछ और चाह रहा था. हम ज़िन्दगी को आज में जीने की चाहत लिए
कल का सपना बुन रहे थे और ज़िन्दगी हमें आज ही हमारी हकीकत दिखाकर हमारे सपनों को
बस सपना बनाने को तुली थी. सिविल सेवा के अलावा किसी और नौकरी के लिए सोचा ही
नहीं. ऐसे में जबकि लगने लगा कि हमारा इसके लिए चयन हो पाना मुश्किल है तो जो
लक्ष्य सोचा था, उसकी तरफ दूसरे रास्ते से बढ़ने का विचार किया. जीवन का अंतिम
लक्ष्य राजनीति को बना रखा था. सिविल सेवा एक तरह का वो अनुभव प्राप्त करना था,
जिसके आधार पर राजनीति में काम करना और आसान हो जाता.
अब जबकि सिविल
सेवा का विचार लगभग त्याज्य सा हो गया तो सामाजिक कार्यों को पूरी वरीयता के साथ
समय देना आरम्भ किया. हालाँकि सामाजिक कार्यों में हमारी खुद की सहभागिता सन 1996 से ही होने लगी थी तथापि तब यह शौकिया
कार्य के लिए, स्वानुभूति के लिए, आत्म-संतुष्टि के लिए किया जा रहा था. अब सबकुछ
भूल, सबकुछ छोड़ सामाजिक कार्यों में खुद को लगा दिया. कन्या भ्रूण हत्या निवारण
कार्यक्रम का आरम्भ कर दिया. खूब काम किया जाता, जनपद जालौन भर में भागदौड़ की
जाती. एकमात्र कार्य कन्या भ्रूण हत्या निवारण कार्यक्रम किया जा रहा था. सामाजिक कार्यों
का सञ्चालन विशुद्ध सामाजिक सेवा की दृष्टि से किया जा रहा था. इसके द्वारा न तो धन
कमाने की चाह थी, न समाजसेवा को रोजगार में बदलने की मंशा थी. इस कारण
सामाजिक कार्यों के साथ खुद को आर्थिक स्तर पर खड़ा करने का प्रयास भी होता रहता.
मनपसंद काम
पूरे मन से हो रहा था. लोगों का आशीर्वाद मिल रहा था. काम करने की संतुष्टि मिल
रही थी. उसी समय समय ने फिर करवट ली. ज़िन्दगी फिर प्रतिद्वंद्वी बनकर सामने आ गई. दो
पैरों से स्वतंत्र रूप से चलती ज़िन्दगी कृत्रिम आधार के सहारे आगे बढ़ने लगी. भागदौड़
में अंकुश लग गया. कार्य की तीव्रता में अवरोध आ गया. जनपद और जनपद के बाहर की
सीमाओं को नापते कदम ठहर से गए मगर आत्मविश्वास कम न हुआ, कार्य-क्षमता प्रभावित
नहीं हुई, उद्देश्यों से डिगना नहीं हुआ.
बदलाव बहुत बड़ा
हुआ मगर हमारा स्वभाव न बदला. गंभीरता अभी भी न आई. हँसी-मजाक अभी भी अपनी उसी
अवस्था में है. ज़िदगी का फलसफा अभी भी वही है. ज़िन्दगी और हम आज भी, अभी भी
एक-दूसरे को जाँचने में लगे हैं. एक-दूसरे से प्रतिद्वंद्विता करने में लगे हैं.
देखिये, आगे होता क्या है? जीत-हार का समीकरण क्या होता है?