Wednesday, 18 April 2018

प्रतिद्वंद्विता ज़िन्दगी के साथ


चाह कर भी अपने स्वभाव में कभी गंभीरता नहीं ला सके. जो पल अभी है, वही ज़िन्दगी है का फलसफा अपनाते हुए अपनी जीवन-यात्रा पर आगे बढ़ते रहे.इसका अर्थ ये नहीं कि हमारे द्वारा किसी कार्य को करने में, जिम्मेवारी का निर्वहन करने में, अपने उद्देश्य को पूरा करने में किसी तरफ की कोताही दिखाई जाती है. यह सब पूरी लगन और निष्ठा के साथ किया जाता है, पर हँसी-माजक के साथ, माहौल को हल्का-फुल्का बनाते हुए. पता नहीं क्यों गंभीर मुद्रा, हाव-भाव का लबादा ओढ़े, चेहरे पर जानबूझकर कठोरता चढ़ाये, होंठों को इतनी बुरी तरह कसे कि मुस्कान धोखे से ही न फिसल जाये, ऐसे लोग कभी नहीं सुहाए. ऐसी गंभीरता वाली मुद्रा को कभी भी वरीयता नहीं दी और अपनी ज़िन्दगी का वर्तमान पूरी मौज-मस्ती के साथ जीते रहे. 

हमने ज़िन्दगी को जितना गंभीरतारहित होकर, अल्हड़ता से, मौज-मस्ती के अंदाज में जीना चाहा, ज़िन्दगी उतनी ही गंभीरता से हमारा परीक्षण करती रही. कह सकते हैं कि हम उसके प्रति गंभीर नहीं रहे और वह भी हमारे प्रति गंभीर नहीं रही. हम दोनों एक-दूसरे के साथ खेलते रहे, एक-दूसरे के होकर भी एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी बने रहे. यह प्रतिद्वंद्विता पढ़ाई में, सामाजिक जीवन में, पारिवारिक जीवन में, रोजगार में, अपने उद्देश्यों में बराबर देखने को मिलती रही.

यही कारण है कि शिक्षा की नींव किसी और विषय से भरी गई और उस पर इमारत किसी और विषय की बन गई. जब अवसर आया उसे सजाने का तो रंग-रोगन किसी और विषय का हो गया. विज्ञान स्नातक के दौरान ही सिविल सेवा में जाने का कीड़ा कुलबुलाया. इससे पहले कि यह कीड़ा पूरी तरह से काट पाता एमबीए और एमसीए के चुनाव में लोगों की सलाह के बीच झूलते रहे. व्यवसाय प्रबंधन और कंप्यूटर के चयन के बीच स्नातक के बाद परास्नातक में प्रवेश लेने की यात्रा कब अंग्रेजी से राजनीति विज्ञान, राजनीति विज्ञान से अर्थशास्त्र में पहुँचकर थमी, पता नहीं चला.

इधर-उधर हाथ-पैर मारे जाते रहे. कतिपय कारण ऐसे बने कि एमबीए की तरफ तो बढ़ ही न सके, इन्हीं कारणों से पत्रकारिता का कोर्स भी छोड़ना पड़ा. पता नहीं उरई हमारे भीतर बसा था या उरई को हमारी आवश्यकता थी. न हम यहाँ से निकल पाए और न उसने हमें यहाँ से जाने दिया. ऐसा इसलिए क्योंकि ग्वालियर स्नातक के लिए जाने के बाद भी उरई वापस आना हुआ. उसके बाद दो बार नौकरी एवं अन्य कार्यों के चलते बाहर जाना पड़ा किन्तु चंद दिनों बाद ही खुद को उरई में ही पाया.

इस जाने-आने के क्रम में, डिग्रियाँ बटोरने के क्रम में चार विषय से परास्नातक हो गए. कई जगह के साक्षात्कार हो गए. नौकरी करते-छोड़ते रहे. पत्रकारिता में भी हाथ-पैर चलाते रहे. लेखन में जुटे रहे. इन सबके बीच सिविल सेवा का कीड़ा कुलबुलाने के साथ काटने भी लगा. उरई के अल्प-संसाधनों के बीच अपनी जगह तलाशते हुए उस तरफ बढ़ लिए. तैयारी जितनी आगे बढ़ती, तमाम सामग्री की अनुपलब्धता में वापस धकेल देती. समस्याओं और परेशानियों को महसूस तो कर पा रहे थे किन्तु उनका समाधान हम खुद निकाल पाने में असमर्थ लग रहे रहे थे. कभी खुद को आर्थिक आधार की तलाश में खड़ा पाते तो कभी इसे समय की बर्बादी समझ फिर से अपनी तैयारी में घुस जाते. आर्थिक आधार की अनुपलब्धता ने जिन्दगी के उन सारे सपनों पर भी अंकुश लगा रखा था जिसे एक युवा दिल देखता है, सजाता है. ज़िन्दगी के लिए, ज़िन्दगी से बड़े सपने सजाये जाते मगर उन्हें धरालत पर उतारने से पहले जब वास्तविकता की कसौटी पर कसते तो सारे सपने बिखर जाते.

बिखरे सपनों के साथ ख़ामोशी से, ऊहापोह की इस अवस्था में खुद को खुद के लिए खड़ा करना था. हम चाह कुछ रहे थे पर समय हमसे कुछ और चाह रहा था. हम ज़िन्दगी को आज में जीने की चाहत लिए कल का सपना बुन रहे थे और ज़िन्दगी हमें आज ही हमारी हकीकत दिखाकर हमारे सपनों को बस सपना बनाने को तुली थी. सिविल सेवा के अलावा किसी और नौकरी के लिए सोचा ही नहीं. ऐसे में जबकि लगने लगा कि हमारा इसके लिए चयन हो पाना मुश्किल है तो जो लक्ष्य सोचा था, उसकी तरफ दूसरे रास्ते से बढ़ने का विचार किया. जीवन का अंतिम लक्ष्य राजनीति को बना रखा था. सिविल सेवा एक तरह का वो अनुभव प्राप्त करना था, जिसके आधार पर राजनीति में काम करना और आसान हो जाता.

अब जबकि सिविल सेवा का विचार लगभग त्याज्य सा हो गया तो सामाजिक कार्यों को पूरी वरीयता के साथ समय देना आरम्भ किया. हालाँकि सामाजिक कार्यों में हमारी खुद की सहभागिता सन 1996 से ही होने लगी थी तथापि तब यह शौकिया कार्य के लिए, स्वानुभूति के लिए, आत्म-संतुष्टि के लिए किया जा रहा था. अब सबकुछ भूल, सबकुछ छोड़ सामाजिक कार्यों में खुद को लगा दिया. कन्या भ्रूण हत्या निवारण कार्यक्रम का आरम्भ कर दिया. खूब काम किया जाता, जनपद जालौन भर में भागदौड़ की जाती. एकमात्र कार्य कन्या भ्रूण हत्या निवारण कार्यक्रम किया जा रहा था. सामाजिक कार्यों का सञ्चालन विशुद्ध सामाजिक सेवा की दृष्टि से किया जा रहा था. इसके द्वारा न तो धन कमाने की चाह थी, न समाजसेवा को रोजगार में बदलने की मंशा थी. इस कारण सामाजिक कार्यों के साथ खुद को आर्थिक स्तर पर खड़ा करने का प्रयास भी होता रहता.

मनपसंद काम पूरे मन से हो रहा था. लोगों का आशीर्वाद मिल रहा था. काम करने की संतुष्टि मिल रही थी. उसी समय समय ने फिर करवट ली. ज़िन्दगी फिर प्रतिद्वंद्वी बनकर सामने आ गई. दो पैरों से स्वतंत्र रूप से चलती ज़िन्दगी कृत्रिम आधार के सहारे आगे बढ़ने लगी. भागदौड़ में अंकुश लग गया. कार्य की तीव्रता में अवरोध आ गया. जनपद और जनपद के बाहर की सीमाओं को नापते कदम ठहर से गए मगर आत्मविश्वास कम न हुआ, कार्य-क्षमता प्रभावित नहीं हुई, उद्देश्यों से डिगना नहीं हुआ.

बदलाव बहुत बड़ा हुआ मगर हमारा स्वभाव न बदला. गंभीरता अभी भी न आई. हँसी-मजाक अभी भी अपनी उसी अवस्था में है. ज़िदगी का फलसफा अभी भी वही है. ज़िन्दगी और हम आज भी, अभी भी एक-दूसरे को जाँचने में लगे हैं. एक-दूसरे से प्रतिद्वंद्विता करने में लगे हैं. देखिये, आगे होता क्या है? जीत-हार का समीकरण क्या होता है?



Monday, 9 April 2018

नींव का आधार बना हमारा स्कूल


किसी भी व्यक्ति के जीवन में जन्मने के बाद महत्त्वपूर्ण दिन होता है उसका पहले दिन स्कूल जाना. लगभग सभी के लिए पहला स्कूली दिन बहुत ही ख़ास होता है. एक जैसी होते हुए भी सबकी अलग-अलग सी कहानी रहती है. वैसे देखा जाये तो स्कूल भी अपने आपमें एक अजब सा स्थान होता है, बच्चों के लिए. किसी के लिए दहशत भरा, किसी के लिए कौतुहल भरा, किसी के लिए खेल का स्थान, किसी के लिए बोझिल सा. प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक शैक्षिक संस्थान को बहुत सहजता से आत्मसात करते रहे. बहरहाल, हम भी स्कूल गए, गए क्या, भेजे गए. समय से ही स्कूल भेजे गए.

हमारा पहला स्कूली दिन बहुत ही रोचक स्थिति में गुजरा. स्कूल का नाम याद नहीं पर शायद राधाकृष्ण जूनियर हाई स्कूल या फिर कुछ इसी तरह का नाम था. पहले दिन स्कूल जाना हुआ एक आया माँ के साथ. स्कूल पहुँचने के बाद कितना समय स्कूल में बिताया, ये भी सही से याद नहीं पर इतना याद है कि कुछ समय बाद हमें स्कूल में अच्छा नहीं लगा. बंद-बंद सा माहौल, छोटे-छोटे से कमरे. आज के भव्य स्कूलों, सजावटी इमारतों से इतर साधारण सा, किसी पुराने मकान में चलता स्कूल. जब तक वे आया माँ दिखती रहीं, तब तक तो हम स्कूल में जमे रहने की कोशिश करते रहे. उनके कुछ देर बाद न दिखने की स्थिति में स्कूल हमें अच्छा सा न लगा. हमने घर जाने की जिद मचाई तो बताया गया कि आया माँ किसी काम से स्कूल से चली गईं हैं, उनके आते ही घर भिजवा दिया जायेगा.

जिद से ज्यादा जिद्दी होने का स्वभाव बचपन से ही रहा है, आज भी है. शायद उसी जिद के साथ-साथ रोना, चिल्लाना बहुत ज्यादा ही रहा होगा तभी स्कूल प्रबंधन ने एक शिक्षक के साथ हमें घर वापसी की राह दिखाई. घर का पता किसी को मालूम नहीं था. आया माँ स्कूल में नहीं. हमने पूरे विश्वास के साथ कहा कि हमें घर का रास्ता पता है. बस फिर क्या था, अपने विश्वास के बलबूते शिक्षक के साथ घर को चल दिए. हम अपने पहले ही दिन अपनी याददाश्त, अपने विश्वास के सहारे वापस घर तक लौट आये. उस स्कूल में हमारा पहला दिन, उस स्कूल का आखिरी दिन भी साबित हुआ.

आज भी अम्मा जी उस दिन को याद कर बताती हैं कि वे शिक्षक और हमारे घर वाले हैरान थे कि उस अत्यंत छोटी सी उम्र में हमें स्कूल से घर तक की रास्ता कैसे याद रही? हैरानी आपको भी हो रही होगी मगर सच ये है कि आज भी ये प्राकृतिक शक्ति हममें विद्यमान है कि किसी रास्ते से एक बार गुजर जाएँ, किसी भी व्यक्ति से एक बार मिल लें फिर वह हमारे दिमाग में बस जाता है.

पहले स्कूल का पहला दिन तो जाने और आने के साथ ही समाप्त हो गया था. उसके बाद तो ये भी याद नहीं कि दूसरे स्कूल में जाना कितने दिन बाद हुआ था. उम्र का एक लम्बा समय गुजरने के कारण उपजी याददाश्त-दोष वाली इस स्थिति के बाद भी पहले स्कूल का पहला दिन अभी तक याद है तो दूसरे नए स्कूल का पहला दिन भी अभी तक बहुत अच्छे से याद है. तैयार होकर, तेल-फुलेल के साथ अपने बच्चा चाचा के साथ स्कूल पहुँचे. चाचाओं में दूसरे नंबर के बच्चा चाचा, हम सभी बच्चों के अत्यंत प्रिय चाचा हैं. हाँ तो, अपने नए स्कूल के पहले दिन हम अपने इन्हीं बच्चा चाचा के साथ स्कूल के लिए चल पड़े. स्कूल पहुँचे तो हम सारे जरूरी साजो-सामान से सुसज्जित थे, बस कमी थी तो हमारे टिफिन बॉक्स की. इसी को ध्यान में रखते हुए ही हमारे लिए टिफिन सजाया जाना था. सो चाचा जी हमें स्कूल में छोड़कर खुद बाजार को निकल गए.

स्कूल में हमारा समय सही से बीत रहा था. पहले वाले स्कूल के मुकाबले खूब खुला-खुला. प्यार-दुलार देती दीदियाँ. कक्षा के गिने-चुने विद्यार्थियों के बीच पहले ही दिन छा जाना, आज भी याद है. कुछ देर बाद कक्षा में आकर हमारा नाम पुकारा गया. उस तरफ देखा तो आया माँ अपने हाथ में एक नया टिफिन बॉक्स लिए खड़ी हैं और स्कूल के बाहर चाचा जी हमारी कक्षा की तरफ निहारते खड़े हुए थे. लाल-सफ़ेद रंग का गोल टिफिन, जो कई वर्षों तक हमारे लिए अपनी सेवाएँ देने के बाद घर के अन्य कामों में प्रयोग होने लगा. भोजनावकाश के समय अपने टिफिन बॉक्स को खोला तो जैसा कि आपको बताया था उसमें बिस्किट, टॉफी हमारे स्वागत में तत्पर थे. घर के सभी लोगों से, अम्मा से सुना है कि हमने भोजन बहुत देर से, लगभग छह-सात वर्ष की उम्र से करना शुरू किया था. तब तक दूध, बिस्किट, दालमोंठ और बाकी चट्ठा-मिट्ठा से काम चलाया जाता था, अपनी भूख मिटाने को. टिफिन बॉक्स में अपना मनपसंद भोजन देख मन और अधिक प्रसन्न हो गया और हम स्कूल का पहला दिन पूरा समय बिताकर ख़ुशी-ख़ुशी घर लौट आये.

पं० उमादत्त मिश्र बालिका विद्यालय के नाम से आरम्भ वह स्कूल वर्तमान में भी पं० उमादत्त मिश्र जूनियर हाई स्कूल के नाम से संचालित है. उस समय छोटा सा वह स्कूल अपने आसपास खेलने का मैदान भी समेटे हुआ था, जो अब कुछ हद तक सिकुड़ सा गया है. शिक्षिकाएँ, जिन्हें हम दीदी कहकर पुकारते थे और प्रधानाचार्या को बड़ी दीदी. सभी का स्नेह, प्यार, दुलार, आशीर्वाद तब भी मिला, आज भी मिल रहा है. बड़ी दीदी के रूप में मधु दीदी के साथ शीला दीदी, सुमन दीदी, सरोजनी दीदी, रेखा दीदी, स्नेहलता दीदी और इनके साथ-साथ शुक्ला आचार्य जी और प्रह्लाद आचार्य जी आदि ने हमारी नींव को भली-भांति तैयार किया. इस नींव की सुरक्षा का दायित्व बहुत दिनों तक शीला आया माँ ने उठाया. बाद में हमारे दोनों छोटे भाइयों का प्रवेश भी उसी स्कूल में करवाया गया. जिनकी सुरक्षा का दायित्व हीरा आया माँ के जिम्मे किया गया.

आज भी उस स्कूल के प्रति आकर्षण बना हुआ है. उस स्कूल के शिक्षक, आया माँ, साथी बराबर याद आते हैं, स्मृति में बसे हुए हैं. उस समय के कुछ लोग आज भी साथ हैं. आये दिन उनसे मुलाकात होती रहती है. उस समय को याद करते हैं तो घर-परिवार जैसी अनुभूति होती है, जो आज के स्कूलों में देखने को नहीं मिल रही है.