Monday, 9 April 2018

नींव का आधार बना हमारा स्कूल


किसी भी व्यक्ति के जीवन में जन्मने के बाद महत्त्वपूर्ण दिन होता है उसका पहले दिन स्कूल जाना. लगभग सभी के लिए पहला स्कूली दिन बहुत ही ख़ास होता है. एक जैसी होते हुए भी सबकी अलग-अलग सी कहानी रहती है. वैसे देखा जाये तो स्कूल भी अपने आपमें एक अजब सा स्थान होता है, बच्चों के लिए. किसी के लिए दहशत भरा, किसी के लिए कौतुहल भरा, किसी के लिए खेल का स्थान, किसी के लिए बोझिल सा. प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च शिक्षा तक शैक्षिक संस्थान को बहुत सहजता से आत्मसात करते रहे. बहरहाल, हम भी स्कूल गए, गए क्या, भेजे गए. समय से ही स्कूल भेजे गए.

हमारा पहला स्कूली दिन बहुत ही रोचक स्थिति में गुजरा. स्कूल का नाम याद नहीं पर शायद राधाकृष्ण जूनियर हाई स्कूल या फिर कुछ इसी तरह का नाम था. पहले दिन स्कूल जाना हुआ एक आया माँ के साथ. स्कूल पहुँचने के बाद कितना समय स्कूल में बिताया, ये भी सही से याद नहीं पर इतना याद है कि कुछ समय बाद हमें स्कूल में अच्छा नहीं लगा. बंद-बंद सा माहौल, छोटे-छोटे से कमरे. आज के भव्य स्कूलों, सजावटी इमारतों से इतर साधारण सा, किसी पुराने मकान में चलता स्कूल. जब तक वे आया माँ दिखती रहीं, तब तक तो हम स्कूल में जमे रहने की कोशिश करते रहे. उनके कुछ देर बाद न दिखने की स्थिति में स्कूल हमें अच्छा सा न लगा. हमने घर जाने की जिद मचाई तो बताया गया कि आया माँ किसी काम से स्कूल से चली गईं हैं, उनके आते ही घर भिजवा दिया जायेगा.

जिद से ज्यादा जिद्दी होने का स्वभाव बचपन से ही रहा है, आज भी है. शायद उसी जिद के साथ-साथ रोना, चिल्लाना बहुत ज्यादा ही रहा होगा तभी स्कूल प्रबंधन ने एक शिक्षक के साथ हमें घर वापसी की राह दिखाई. घर का पता किसी को मालूम नहीं था. आया माँ स्कूल में नहीं. हमने पूरे विश्वास के साथ कहा कि हमें घर का रास्ता पता है. बस फिर क्या था, अपने विश्वास के बलबूते शिक्षक के साथ घर को चल दिए. हम अपने पहले ही दिन अपनी याददाश्त, अपने विश्वास के सहारे वापस घर तक लौट आये. उस स्कूल में हमारा पहला दिन, उस स्कूल का आखिरी दिन भी साबित हुआ.

आज भी अम्मा जी उस दिन को याद कर बताती हैं कि वे शिक्षक और हमारे घर वाले हैरान थे कि उस अत्यंत छोटी सी उम्र में हमें स्कूल से घर तक की रास्ता कैसे याद रही? हैरानी आपको भी हो रही होगी मगर सच ये है कि आज भी ये प्राकृतिक शक्ति हममें विद्यमान है कि किसी रास्ते से एक बार गुजर जाएँ, किसी भी व्यक्ति से एक बार मिल लें फिर वह हमारे दिमाग में बस जाता है.

पहले स्कूल का पहला दिन तो जाने और आने के साथ ही समाप्त हो गया था. उसके बाद तो ये भी याद नहीं कि दूसरे स्कूल में जाना कितने दिन बाद हुआ था. उम्र का एक लम्बा समय गुजरने के कारण उपजी याददाश्त-दोष वाली इस स्थिति के बाद भी पहले स्कूल का पहला दिन अभी तक याद है तो दूसरे नए स्कूल का पहला दिन भी अभी तक बहुत अच्छे से याद है. तैयार होकर, तेल-फुलेल के साथ अपने बच्चा चाचा के साथ स्कूल पहुँचे. चाचाओं में दूसरे नंबर के बच्चा चाचा, हम सभी बच्चों के अत्यंत प्रिय चाचा हैं. हाँ तो, अपने नए स्कूल के पहले दिन हम अपने इन्हीं बच्चा चाचा के साथ स्कूल के लिए चल पड़े. स्कूल पहुँचे तो हम सारे जरूरी साजो-सामान से सुसज्जित थे, बस कमी थी तो हमारे टिफिन बॉक्स की. इसी को ध्यान में रखते हुए ही हमारे लिए टिफिन सजाया जाना था. सो चाचा जी हमें स्कूल में छोड़कर खुद बाजार को निकल गए.

स्कूल में हमारा समय सही से बीत रहा था. पहले वाले स्कूल के मुकाबले खूब खुला-खुला. प्यार-दुलार देती दीदियाँ. कक्षा के गिने-चुने विद्यार्थियों के बीच पहले ही दिन छा जाना, आज भी याद है. कुछ देर बाद कक्षा में आकर हमारा नाम पुकारा गया. उस तरफ देखा तो आया माँ अपने हाथ में एक नया टिफिन बॉक्स लिए खड़ी हैं और स्कूल के बाहर चाचा जी हमारी कक्षा की तरफ निहारते खड़े हुए थे. लाल-सफ़ेद रंग का गोल टिफिन, जो कई वर्षों तक हमारे लिए अपनी सेवाएँ देने के बाद घर के अन्य कामों में प्रयोग होने लगा. भोजनावकाश के समय अपने टिफिन बॉक्स को खोला तो जैसा कि आपको बताया था उसमें बिस्किट, टॉफी हमारे स्वागत में तत्पर थे. घर के सभी लोगों से, अम्मा से सुना है कि हमने भोजन बहुत देर से, लगभग छह-सात वर्ष की उम्र से करना शुरू किया था. तब तक दूध, बिस्किट, दालमोंठ और बाकी चट्ठा-मिट्ठा से काम चलाया जाता था, अपनी भूख मिटाने को. टिफिन बॉक्स में अपना मनपसंद भोजन देख मन और अधिक प्रसन्न हो गया और हम स्कूल का पहला दिन पूरा समय बिताकर ख़ुशी-ख़ुशी घर लौट आये.

पं० उमादत्त मिश्र बालिका विद्यालय के नाम से आरम्भ वह स्कूल वर्तमान में भी पं० उमादत्त मिश्र जूनियर हाई स्कूल के नाम से संचालित है. उस समय छोटा सा वह स्कूल अपने आसपास खेलने का मैदान भी समेटे हुआ था, जो अब कुछ हद तक सिकुड़ सा गया है. शिक्षिकाएँ, जिन्हें हम दीदी कहकर पुकारते थे और प्रधानाचार्या को बड़ी दीदी. सभी का स्नेह, प्यार, दुलार, आशीर्वाद तब भी मिला, आज भी मिल रहा है. बड़ी दीदी के रूप में मधु दीदी के साथ शीला दीदी, सुमन दीदी, सरोजनी दीदी, रेखा दीदी, स्नेहलता दीदी और इनके साथ-साथ शुक्ला आचार्य जी और प्रह्लाद आचार्य जी आदि ने हमारी नींव को भली-भांति तैयार किया. इस नींव की सुरक्षा का दायित्व बहुत दिनों तक शीला आया माँ ने उठाया. बाद में हमारे दोनों छोटे भाइयों का प्रवेश भी उसी स्कूल में करवाया गया. जिनकी सुरक्षा का दायित्व हीरा आया माँ के जिम्मे किया गया.

आज भी उस स्कूल के प्रति आकर्षण बना हुआ है. उस स्कूल के शिक्षक, आया माँ, साथी बराबर याद आते हैं, स्मृति में बसे हुए हैं. उस समय के कुछ लोग आज भी साथ हैं. आये दिन उनसे मुलाकात होती रहती है. उस समय को याद करते हैं तो घर-परिवार जैसी अनुभूति होती है, जो आज के स्कूलों में देखने को नहीं मिल रही है.

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