Wednesday, 7 March 2018

जातिवाद लोगों की नस-नस में समाहित है

इधर देखने में आया है कि समाज में जातिगत-विभेद को लेकर काफी कुछ लिखा-सुना जाता रहा है. हमारा मानना है कि इस समय के व्यावसायिकता भरे दौर में जातिगत भेद की जगह पर अमीर-गरीब का भेद ज्यादा दृष्टिगोचर हो रहा है. यहाँ एक एहसास जो जाति को लेकर हमें आज से कई साल पहले हुआ था. 

हमें अपने एक मित्र के साथ एक काम से इलाहाबाद-बनारस आदि की यात्रा पर जाना पड़ा. शायद सन् 1999 की बात होगी, गर्मियों के दिन थे, जून का महीना था. सफर के दौरान यदि ज्यादा समय यात्रा में लगना होता है तो घर से अम्मा भोजन साथ में बाँध दिया करती हैं. आज भी उनकी यही आदत है और इस आदत को हमने भी अपनी आदत बना लिया है. बाहर का कुछ खाने से बेहतर है कि घर का ही कुछ खाया जाये, इसी सोच से हम आज भी घर से कुछ न कुछ खाद्य सामग्री लेकर अपने साथ चलते हैं.

उस दिन उरई से ट्रेन सुबह लगभग 9 बजे के आसपास थी. हम लोग स्टेशन पहुँचे और अपने समय पर ट्रेन के आने पर अपनी मंजिल को चल पड़े. रास्ते में दोपहर में भोजन का समय होने पर हमने घर से अपने साथ लेकर चले पूड़ी-सब्जी आदि का स्वाद लिया और अपनी भूख मिटाई. चूँकि अम्मा का लाड़-दुलार और उनकी निगाह में घर से बहुत दूर जाने की बात, सो पूड़ियाँ और सब्जी कुछ ज्यादा ही दे दी गईं थीं. हम दोनों लोगों ने अपने पेट और भूख के हिसाब से जितना भोजन पर्याप्त हो सकता था उतना किया और शेष को वापस डब्बे में रख दिया. सफर के दौरान हमारी एक आदत हमेशा रही है कि खाने का सामान थोड़ा-बहुत बचा ही लेते हैं और किसी भीख माँगने वाले बच्चे, वृद्ध को अथवा ट्रेन-बस में सफाई करने वाले बच्चे को दे देते हैं. भोजन कुछ ज्यादा होने के कारण और कुछ अपनी आदत के अनुसार बचा गया अथवा बचा लिया. चूँकि दिन गर्मियों के थे इस कारण सब्जी के खराब होने के डर से उसे नहीं बचाया. 

उरई से चलकर हम इलाहाबाद तक आ गये और इसे इत्तेफाक कहिए कि पूरे सफर के दौरान कोई माँगने वाला अथवा सफाई करने वाला नहीं आया. दिमाग में डब्बे में रखी पूड़ियाँ और आम का अचार घूम रहा था. माहौल भी ऐसा है कि किसी को अपने आप कुछ भी खिलाने-देने का संकट मोल भी नहीं ले सकते थे. हमारा दोस्त भी हमारी तरह की प्रवृत्ति का है सो वह भी भोजन के सही उपयोग का स्थान खोज रहा था.

इलाहाबाद स्टेशन पर उतरे तो सोचा कि कोई व्यक्ति तो मिला नहीं, जानवर ही मिल जाये तो उसको ही खिलाकर पूड़ियों को सही ठिकाने लगा दिया जाये. ट्रेन से उतरकर अभी मुश्किल से 20-25 कदम चले होंगे कि एक बुढ़िया वहीं प्लेटफॉर्म पर भीख माँगते दिखी. हम दोनों मित्रों ने एक दूसरे को देखा और लगा कि चलो अब किसी का भला हो जायेगा. हम दोनों उस बुढ़िया के पास पहुँचे और उससे पूछा कि अम्मा कुछ पूड़ियाँ और आम का अचार बचा है खाओगी?

उसके हाँ कहते ही हमने अपने बैग से डिब्बा निकाला और उस बुढ़िया को देने के लिए आगे बढ़ाया. उसने डिब्बा लेने के लिए अपना हाथ तो बढ़ाया नहीं वरन् एक सवाल उछाल दिया, जिसे सुनकर हम दोनों मित्रों के पैरों के नीचे से जमीन सरकने का एहसास हुआ. उस बुढ़िया ने डिब्बे को लेने का कोई जतन किये बगैर पहले पूछा कि बेटा कौन जात के हो? गुस्सा तो बहुत आई किन्तु उस बुढ़िया से क्या कहते. इसी गुस्से में उस बुढ़िया से यह कहकर कि अम्मा तुम फिर न लेओ हमाईं पूड़ियाँ, काये से के हम दोउ जने अछूत हैं, आगे बढ़ गये.

लगा कि देश में जातिगत विभेद की भावना किस कदर घर किये है कि एक भीख माँगने वाली बुढ़िया भी जाति पूछ कर भोजन लेती है. स्टेशन से बाहर आकर उन पूड़ियों को एक गाय और एक कुत्ते के बीच बाँट दिया जो बिना जाति पूछे अपनी भूख मिटाने लगे.

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