ये हम तीनों भाइयों
का सौभाग्य रहा कि हमें अपने अइया-बाबा (श्रीमती शारदा देवी सेंगर-श्री
गिरीन्द्र सिंह सेंगर) के साथ रहने का, उनकी सेवा करने का, उनसे बहुत कुछ सीखने
का अवसर मिला. गाँव की कृषिगत जिम्मेवारियों से निवृत्त होकर अइया-बाबा हम लोगों के
पास आ जाते. उनके आने पर हम तीनों भाइयों को कुछ बेहतरीन लाभ मिलने लगते. जैसे कि पिताजी
की डांट-मार से मुक्ति मिल जाती. हम लोगों की शैतानियाँ निखरने लगती. बाबा-अइया अपने स्नेहिल संरक्षण में यदि हम लोगों की शैतानियों
को पंख लगने देते तो इसके साथ ही वे हमारे बौद्धिक ज्ञान, व्यक्तित्व
विकास, शारीरिक विकास, चारित्रिक विकास
को भी पल्लवित-पुष्पित करते. सुबह घूमने की आदत, पैदल चलने की
आदत, मेहनत करने की आदत, समयबद्ध कार्य
करने की आदत, अनुशासन में रहने की आदत, पढ़ने की आदत, लिखने की आदत, कागजातों
को क्रमबद्ध सुरक्षित रखने की आदत, वैचारिक विमर्श करने की आदत,
किसी भी स्थिति को सभी बिन्दुओं पर परखने की आदत आदि का बीजारोपण बाबा
जी के द्वारा ही किया गया.
सुबह हम तीनों भाइयों
को उठाकर अपने साथ ले जाना, रास्ते में तमाम ज्ञानवर्द्धक जानकारियां देना, हमें स्कूल छोड़ने और लेने जाने के दौरान बाजार की, तत्कालीन
राजनीति की, अपने समय की अनेक बातों को बताते हुए उनका विश्लेषण
करना उनके द्वारा होता रहता. बाबा जी द्वारा दी गई शिक्षाओं को, उनके द्वारा दी गई जानकारियों को, उनके सिद्धांतों को
यदि लिखने बैठा जाये तो न समाप्त होने वाला अध्याय लिखा जा सकता है. वे हमारी लिखने
की आदत देखकर अकसर हमें समझाते रहते थे कि किसी भी घटना पर, किसी
भी बिन्दु पर कभी एकपक्षीय होकर मत सोचो, एकपक्षीय होकर कभी विचार
न करो. उसके जितने भी पहलू हो सकते हैं, सभी पर विचार करो,
कोई न मिले तो उन सभी बिन्दुओं पर खुद से तर्क-वितर्क करो. किसी भी घटना
के, विषय के सभी पक्षों पर जब तुम समान रूप से विमर्श करने की
स्थिति में होगे तो उस घटना, विषय विशेष पर कभी गलत नहीं होगे.
बाबा ऐसे लोगों
से तर्क-वितर्क न करने की सलाह देते थे जो नितांत कुतर्की होते हैं. ऐसे लोगों के बारे
में बाबा जी का मत था कि ये खुद तो भ्रमित रहते ही हैं सामने वाले को भी भ्रमित करते
हैं. आज भी उनके शब्द हमें अक्षरशः याद हैं. और यही कारण है कि आज भी किसी भी घटना
के सन्दर्भ में उससे बनने वाले सभी बिन्दुओं पर हमारा तर्क-वितर्क होता रहता है. अकसर
हमारे मित्रों को लगता है कि हम भटकाने-भटकने की कोशिश कर रहे हैं, विषय से इतर बात कर रहे हैं मगर हमें स्वयं
पता होता है कि ऐसा हम क्यों कर रहे हैं, इसके पीछे का मूल कारण
क्या है. यही कारण है कि आज भी हम किसी भी विषय पर उससे जुड़े सभी संभावित बिन्दुओं
पर एकसमान रूप से विचार कर लेते हैं. इस वैचारिक शक्ति ने हमारी लेखन-क्षमता को मजबूती
ही दी है.
वे समाज के चालचलन
के बारे में, लोगों के कृत्यों के बारे में, लोगों के व्यवहार के बारे
में भी समझाते रहते थे. लोगों की सहायता करने को, असहायों की
मदद करने को वे लगातार प्रेरित भी करते रहते थे. इस सन्दर्भ में उनकी एक बात सदैव हमारे
आसपास घूमती रहती है. उनका कहना था कि तुमसे जितना बन पड़े दूसरों के लिए भला करो,
बिना ये जाने-समझे कि वो तुम्हारा परिचित है या अपरिचित; बिना ये सोचे कि भविष्य में वो तुम्हारे काम आएगा या नहीं; बिना इसका विचार किये कि तुमको उस कार्य से लाभ हो रहा या नहीं. दूसरों को
परेशानी में, समस्या में देखो तो उसकी निसंकोच मदद करो. इसके
साथ ही ये बात याद रखो कि तुम भले ही सबका भला करते रहो मगर किसी को अपने प्रति बुरा
सोचने न दो, करने न दो. यदि ऐसा होता है तो वह आगे चलकर तुम्हारे
लिए परेशानी पैदा कर सकता है. इसका इलाज यही है उसका ऐसा इलाज करो कि फिर वो किसी का
भी बुरा करने तो क्या बुरा सोचने लायक भी न रह जाए.
इसके अलावा उनकी
एक सीख आज भी हमें किसी भी तरह की परेशानी में नहीं आने देती. कितनी भी बड़ी समस्या
हो हमें परेशान नहीं करती. वे कहा करते थे कि कितनी भी बड़ी समस्या हो उसका हल बहुत
छोटी सी घटना में खोजना चाहिए. उनका मानना था कि कोई भी घटना बड़ी नहीं होती, हमारी मानसिकता, हमारा
परेशान होना, हमारा अफरातरफी मचाना ही समस्या को बड़ा बना देता
है. ऐसे में आत्मसंयम, मानसिक नियंत्रण, सजगता से समस्या का हल निकाला जा सकता है.
बाबा के
साथ-साथ अइया का व्यावहारिक ज्ञान अपनी तरह से हम भाइयों की मदद करता था.
परम्पराओं, त्योहारों, लोकोत्सव, लोकगीतों आदि के बारे उनकी जानकारी हम सबके ज्ञान
में वृद्धि करती थी. उनके द्वारा पिताजी, चाचाओं के बचपन के किससे खूब मजे ले-लेकर
हम सबने सुने. वे एक बात बहुत हँस-हँस कर बताया करती थीं कि अपनी पढ़ाई के दौरान
चाचा लोग, ख़ास तौर से बच्चा चाचा जब गाँव से उरई वापस आया करते तो दरवाजे तक आने
के बाद चाचाओं की एक फरमाइश अइया से हुआ करती थी. आपको बताएँ वो फरमाइश हुआ करती
थी ढपली की धुन किड़िक मर-मर-मर-मर-मर, हईंयाँ ना-ना-ना-ना-ना को सुनाना.
अइया ने इस धुन को न केवल चाचाओं को सुनाकर उनकी फरमाइश पूरी की बल्कि हम लोगों को
भी सुनाकर खूब हँसाया.
आज उनको हम लोगों
से दूर गए कई वर्ष हो गए हैं. उनकी शिक्षाओं ने, उनकी जानकारियों ने हमारा हर कदम पर साथ दिया है. बड़ी से बड़ी घटना
रही हो या फिर छोटी से छोटी समस्या, सबको हमने हँसते हुए ही दूर
किया है. उनके आशीर्वाद का ही सुफल है कि बहुत सी नकारात्मक ताकतों की कोशिशों के बाद
भी हम अपनी राह सहजता से बढ़े जा रहे हैं, आगे भी बढ़ते रहेंगे.
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