Monday, 30 November 2015

किसी अजूबे से कम न था टीवी

बचपन का वो दौर सिर्फ मौज-मस्ती का दौर, शरारतों का दौर, शैतानियों का दौर था. आज की तरह न घुटन भरा माहौल, न आज की तरह पढ़ाई का अनावश्यक बोझ. बचपन का अर्थ तब विशुद्ध बचपन ही होता था. मासूमियत, भोलापन, नादानी से सजा-संवरा बचपन. आज के बच्चों की तरह गैजेट्स से सुसज्जित नहीं था सो आज के बच्चों की तरह बुजुर्गियत भी नहीं थी. तब कोई भी नई चीज कौतूहल का केंद्र हुआ करती थी. घर की साइकिल कौतुहल थी, तो वकील बाबा की एम्बेसडर कार भी आश्चर्य थी. घर में जालीदार एंटीना लगा रेडियो अचरज की विषय-वस्तु थी तो टीवी महाअजूबा के रूप में प्रकट हो गया. 

घर में रेडियो था, जो किंचित आरम्भिक आश्चर्यबोध के पश्चात् गर्व की अनुभूति करवाने लगा. इसके पीछे कारण ये था कि तब मोहल्ले में आसपास रेडियो न के बराबर थे. एक ऐसे डिब्बे के बीच जिसमें बोलने-गाने वाला दिखाई नहीं दे रहा हो कोई ऐसा बड़ा डिब्बा देखने को मिल जाये जिसमें गाने वाले, बातचीत करने वाले सामने दिख रहे हों तो उसे दुनिया का अजूबा ही समझा जायेगा. इतने छोटे से डिब्बे में कैसे घुसे होंगे ये लोग? इतने छोटे से डिब्बे में इतने सारे लोग आये कैसे होंगे? जो लोग दिख रहे, उनके अलावा बाकी लोग कहाँ छिपे हैं? जिस दिन पहली बार टीवी देखा, ऐसे न जाने कितने सवाल दिमाग में आते रहे और दिमाग को चकराते रहे. खुद से ही सवाल करते रहे, खुद को ही जवाब देते रहे. ये शायद 1977-78 की बात होगी, हमारे सबसे बड़े चाचा श्री नरेन्द्र सिंह सेंगर, हम लोगों के मन्ना चाचा तब कालपी में भारतीय स्टेट बैंक में सेवारत थे. हमारा बहुत सारा समय मन्ना चाचा के साथ गुजरा. उरई से बहुत पास होने के कारण या तो चाचा परिवार सहित उरई आ जाते या फिर हम लोग चाचा के पास पहुँच जाते.

चाचा के पास कालपी जाने पर वहीं इस बुद्धू बक्से से परिचय हुआ. चाचा जी के मकान मालिक अपने समय के धनाढ्य व्यक्तियों में माने जाते थे. उनको हम बच्चे ताऊजी-ताईजी से संबोधित करते थे. सरल, स्नेहिल स्वभाव के धनी ताऊजी-ताईजी एक ब्लैक-व्हाइट टीवी के मालिक भी हुआ करते थे. हम लोगों के कालपी पहुँचते ही उस टीवी से उनका और उनके बच्चों का मालिकाना हक़ समाप्त हो जाता और वह बोलता-बतियाता डिब्बा हमारी संपत्ति हो जाया करती. नमस्कार के साथ शुरू होने वाला टीवी शुभ रात्रि के साथ ही बंद होता. एकमात्र दूरदर्शन चैनल होने के कारण सीमित समयावधि में चलने वाले कार्यक्रमों से हम बच्चों का कोई लेना-देना नहीं होता. बस टीवी देखना होता था सो देखते रहते थे. कृषि सम्बन्धी चर्चा हो, स्वास्थ्य सम्बन्धी चर्चा हो, सामाजिक विमर्श हो, समाचार हों, गाने हों बस देखना था सो देखना था. लम्बे-लम्बे एंटीना की सहायता से नेटवर्क पकड़ने का प्रयास किया जाता था. बहुधा कार्यक्रमों में झिलमिलाहट रहती, आवाज़ आती-जाती रहती, चित्र बनते-बिगड़ते रहते इसके बाद भी उन तीन-चार घंटों के टीवी दर्शन से अत्यंत सुखद अनुभूति मिलती. न विषय की समझ, न विमर्श की पहचान, न खबरों से वास्ता मगर इसके बाद भी सबकुछ बहुत अच्छा-अच्छा सा लगता था. हम बच्चों का टीवी दर्शन के साथ-साथ ताईजी का घरेलू पकवान खिलवाते रहने का प्यार-दुलार भी चलता रहता.

आज जबकि तब के बड़े-बड़े एंटीनों की जगह छोटी-छोटी छतरियों ने ले ली है; आज जबकि तब के सामान्य से प्रसारण के मुकाबले फुल एचडी फॉर्मेट में प्रसारण होने लगा है; आज जबकि तब के चंद घंटों के प्रसारण के मुकाबले चौबीस घंटे प्रसारण होने लगा है; आज जबकि तब के एक चैनल के मुकाबले सैकड़ों चैनल कार्यक्रम परोसने में लगे हों तब भी टीवी एक पल को वो सुख-आनंद नहीं दे पाता है जो उस समय मिलता था. चित्रहार के लिए दिन गिनना, सीरियल के लिए पूरे सप्ताह इंतजार करना, नए वर्ष के मनमोहक कार्यक्रमों का वर्ष भर इंतजार रहना, प्रातःकालीन प्रसारण शुरू होने के बाद रंगोली को चारपाई में दुबके-दुबके देखना आदि-आदि अपने आपमें स्वर्गिक अनुभूति देने वाला रोमांच था, जिसकी याद आज भी आनंद के सागर में गोते लगवाती है.  


Saturday, 21 November 2015

कूड़े के ढेर पर पड़े केले के छिलकों से मिटती भूख


इंसान की जिन्दगी में बहुत सी स्थितियाँ ऐसी होतीं हैं जब वह एकदम असहाय स्थिति में होता है और इस तरह की स्थितियों से बाहर आने के लिए वह कुछ भी कर बैठता है. ऐसी विषम स्थिति किसी भी व्यक्ति के जीवन में आने के कई कारण होते हैं, भूख उनमें से एक कारण होती है. कहा भी जाता है कि पेट जो न कराये वो कम है. भूख में आदमी को दम तोड़ते भी सुना है, किसी भी स्थिति तक गिरते देखा है, चोरी करते सुना है, अपना जिस्म बेचते भी सुना है. भूख और गरीबी की विकट स्थिति से लड़ने-जूझने की, जिन्दा रहने की मारामारी में कुछ भी कर गुजरने के लिए उठाये गये कदमों में प्रसिद्ध साहित्यकार शैलेश मटियानी के बारे में पढ़ रखा है कि वे किसी न किसी बहाने से पुलिस की पकड़ में आने की कोशिश करते थे. इससे उनके खाने और रहने की समस्या कुछ हद तक निपट जाया करती थी. 

यह एक दशा है जो हमने पढ़ रखी है. कुछ इसी तरह की दशा से हमें रूबरू होने का कुअवसर उस समय मिला जब हम अपनी स्नातक की पढ़ाई के लिए सन् 1990 में ग्वालियर गये. हमारा रहना हॉस्टल में होता था और ग्वालियर में ही हमारे सबसे छोटे चाचाजी के रहने के कारण हफ्ते में एक-दो बार घर भी जाना होता था. उरई जैसे छोटे शहर से निकल कर ग्वालियर जैसे शहर में आने पर घूमने का अपना अलग ही मजा आता था. इसी कारण से चाचा के घर पर हमेशा रास्ते बदल-बदल कर जाया करते थे.

एक दिन अपनी साईकिल यात्रा रेलवे स्टेशन की ओर से करने का फैसला किया. रेलवे स्टेशन के पास के ओवरब्रिज पर चढ़ते समय रेलवे स्टेशन का नजारा और सामने खड़े किले का दृश्य बहुत ही मजेदार लगता था. विशालकाय किला लगातार पास आते दिखता और फिर उसके नीचे से गुजरना अद्भुत एहसास कराता था. इसी रास्ते पर रानी लक्ष्मी बाई का समाधिस्थल होना और भी गौरवान्वित कर जाता था. उस दिन जैसे ही ओवरब्रिज पर चढ़ने के लिए अपनी साइकिल को मोड़ा तो उसी मोड़ पर लगे कूड़े के ढ़ेर में एक बारह-तेरह साल के लड़के को बैठे देखा. ऐसे दृश्य हमेशा ही किसी न किसी कूड़े के ढ़ेर पर दिखाई देते थे कि छोटे-छोटे लड़के-लड़कियाँ कुछ न कुछ बीनते नजर आते. उस दिन भी कुछ ऐसा ही लगना था किन्तु ऐसा लगा नहीं. वह लड़का बजाय कूड़ा-करकट बीनने के कुछ और ही करता नजर आया. वह कूड़े के ढेर में पड़े केले के छिलकों को खा रहा था. 

आँखों का धोखा समझ कर दिमाग को झटका दिया और अपनी साइकिल की रफ्तार बढ़ाने के लिए पैडल पर जोर लगाया. मुश्किल से तीन या चार कदम ही साइकिल चल पाई होगी कि मन में उथल-पुथल मचने लगी. ब्रेक लगाये और वहीं खड़े हो गये अब न तो समझ में आये कि आगे बढ़ें या फिर उस लड़के की तरफ जाएँ. जो देखने का भ्रम हुआ था, कहीं सच तो नहीं? जैसे ही यह विचार कौंधा अगले ही पल मन में कुछ विचार किया और साइकिल को घुमा कर उस लड़के के पास खड़ा कर दिया. दिमाग भन्ना गया कि वह अभी भी निर्विकार भाव से केले के छिलके को खुरच-खुरच कर खाने में लगा है. 

क्यों क्या कर रहे हो? की आवाज सुनकर उस लड़के के हाथ से केले का छिलका छूट गया, उसको लगा कि कहीं यह भी अपराध न कर रहा हो. आँखों ने जो देखा था वह सच था. उसके मुँह से कोई आवाज नहीं निकली, बस वह चुपचाप खड़ा हो गया. हमने उससे खाना खाने के लिए पूछा तो उसने सिर हाँ की स्थिति में हिला दिया. उसको अपने साथ लेकर स्टेशन के बाहर ही तरफ बने होटलों की तरफ ले कर चल दिए. अब समस्या यह थी कि उसको होटल में बिठाकर तो खिलाने को कोई भी तैयार नहीं था. एक होटल में सोलह रुपये में भोजन की एक थाली मिलती थी. उससे एक थाली देने को कहा तो उसने बाहर देने से मनाकर दिया. इधर-उधर निगाह दौड़ा कर कुछ समाचार-पत्र और कुछ पॉलीथीन इकट्ठा किये और उस भूखे बच्चे के लिए भोजन प्राप्त किया. सड़क के दूसरी तरफ एक जगह बिठाकर उसे अपने सामने खाना खिलवाया. सामने इसलिए ताकि कोई और उसे परेशान न कर सके.

जीवन में तब से लेकर आज तक बहुत सी अच्छी बुरी घटनाओं को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से देखा-सुना है किन्तु आज भी वह घटना दिमाग से निकाले नहीं निकलती है. तब से लेकर आज तक एक नियम सा बना लिया है कि कभी भी माँगने वालों को, स्टेशन पर, ट्रेन में भीख माँगने वाले को, कूड़ा बीनने वाले बच्चों को रुपये देने की बजाय उनको खाना खिला देते हैं.


Sunday, 15 November 2015

चहकने वाला ननिहाल अब खामोश रहता है


शाम का धुंधलका होते ही घर के पास बने कुंए से पानी खींचना और घर के सामने की जगह पर छिड़क कर जमीन की गर्मी, धूल को दबाने का काम शुरू हो जाता. कई-कई बाल्टी पानी खींचना, कई-कई बार का चक्कर लगाना, जमीन की दिन भर की गर्मी को शांत करने की सफल कोशिश के बाद मिट्टी की सोंधी-सोंधी महक से मन झूम जाता. चारपाई बिछाने का काम भी होने लगता. कोई अपनी चटाई बिछाकर पहले से अपनी जगह को घेरने लगता. फैलते अंधियारे में कभी चाँद की चाँदनी तो कभी लालटेन की रौशनी फैलती दिखती. इसी रौशनी के सहारे आसपास के बुजुर्ग, युवा, बच्चे, पुरुष, महिलाएँ अपने-अपने झुण्ड बनाकर विस्तार में फैली जगह में चहचाहट भर रहे होते. घर के सामने बने विशाल चबूतरे पर हमारे सबसे बड़े मामा, नन्ना मामा (श्री जनक सिंह क्षत्रिय) जो प्रधानाध्यापक रहे थे, के द्वारा रामचरित मानस का नियमित पाठ होता. उसे नियमित सुनने वाले भी अपनी-अपनी जगह पर बैठे होते. बच्चों की शरारतों, युवाओं के ठहाकों, महिलाओं की रुनझुन करती हँसी के साथ-साथ मानस की चौपाइयों की स्वर-लहरी भक्तिमय रूप में घुलती रहती. 

शाम का धुंधलका घहराते-घहराते रात में बदलता जाता. गली भर में, चबूतरों पर, नीम के पेड़ों के नीचे पाए जाते झुण्ड भी परिवर्तित होते रहते. लोगों की जगह बदलती रहती, बैठने का स्थान बदलता रहता, आपसी वार्तालाप का विषय बदलता रहता. कभी एकदम से चिल्ला-चोट, कभी संशय भरी खुसफुसाहट, कभी ठहाके तो कभी नितांत ख़ामोशी सी. रात में अँधेरे में सिमटती जाती अपनी-अपनी दुनिया में निमग्न ये छोटे-छोटे समूह चलायमान भी बने रहते. कुछ के घर से भोजन कर लेने की पुकार उठती. कुछ भोजन करके ऐसी गतिविधियों का हिस्सा बनते, कुछ समूह का हिस्सा बने लोगों को अपने साथ ले जाकर भोजन का आनंद उठाते. कुछ ज्यादा ही मनमौजी टाइप के लोग अपनी थाली सहित सबके बीच ही प्रकट हो जाते. एक थाली, कई-कई हाथ, न जाति का पूछा जाना, न बड़े-छोटे का भान. छोटे-छोटे कौर परमानन्द की प्राप्ति कराते हुए थाली के भोजन को समाप्त करते जाते. थाली खाली होने के पहले ही भर जाती. कभी इस घर से सूखी सब्जी आ जाती तो कभी उस घर की रसीली सब्जी का स्वाद मिलता. कहीं से दाल आकर लोगों को ललचाती तो कहीं से तीखा अचार आकर चटखारे बढ़ा देता. अनौपचारिक रूप से सब एक-दूसरे से हिले-मिले कहानी, किस्सों, लोकगीतों के हिंडोले पर कब नींद के आगोश में खो जाते, पता ही नहीं चलता. 

ऐसा नहीं कि रातें ही ऐसे खुशगवार गुजरती वरन सुबह से लेकर शाम आने तक जिंदगी ऐसे ही खुशगवार तरीके से गुजरती. दिन भर धूप की, गर्मी की चिंता से मुक्त कभी खलिहान, कभी बगिया की सैर. कभी नीम के झोंके पकड़ने की होड़ में झूलों की पेंग कभी तालाब की गहराई नापने की होड़ तो कभी बम्बा की धार को पीछे छोड़ने की सनक. आम, अमिया पर निशाना साधने को फेंके जाते पत्थर; तरबूज-खरबूज को एक मुक्के से तोड़ने की प्रतियोगिता दिन-दिन भर बच्चों के बीच चलती रहती. गर्मी हो या सर्दी, सभी मौसम में बुजुर्गों से लेकर बच्चों तक की एकसमान गतिविधियाँ. सभी की सहयोगात्मक स्थिति. सभी के बीच प्रेम, स्नेह, सौहार्द्र का गुलशन लगातार महकता रहता. बच्चों से लेकर बड़ों तक अपनापन दिखाई देता. किसी के बीच किसी तरह भेदभाव समझ नहीं आता. घर की चौखटों पर कोई प्रतिबन्ध न दिखाई देता. गलियाँ चहकती-महकती रहती.

समय ने बहुत कुछ बदल दिया. इंसानों को भी बदला. गाँवों की संस्कृति को भी बदला. खेतों, खलिहानों, बगीचों, गलियों की मिट्टी की सुगंध को बदला. नीम के पेड़ों पर पड़े झूलों को बदला, तालाबों, नदियों, बम्बों के पानी को बदला. गुलजार रहने वाले खेत, खलिहान, बगीचे, गलियाँ अब सुनसान से दिखाई देते हैं. चबूतरे वीरान हैं, नीम तन्हा खड़े हैं, झूले खामोश लटके हैं, गलियों में सुगन्धित मिट्टी की जगह सीमेंट की गर्मी उड़ रही है. एक थाली में भोजन की परम्परा की जगह घर के आँगन में दीवार खिंची है. अपनेपन की जगह स्वार्थ दिखाई देने लगा है. प्रेम-स्नेह की जगह वैमनष्यता ने ले ली है. अब न दिन चहकते दिखते हैं और न ही रातें गुलज़ार दिखती हैं. कुँओं की जगत पर खिलखिलाहट नहीं सुनाई देती. गली के मकानों से भोजन कर जाने की आवाजें भी नहीं उठती. सब अपने-अपने में मगन हैं. सब अपने-अपने घरौंदों में सिमटे हैं.

कभी चहकता-महकता दिखता गाँव तन्हा है, खामोश है. अपने में सिसकता है, अपने में रोता है किन्तु अब उसके आँसू देखने वाला कोई नहीं, उसके आँसू पोंछने वाला कोई नहीं, उसके हालचाल जानने वाला कोई नहीं.

Sunday, 1 November 2015

उन भयानक दिनों की याद आज भी है


31 अक्टूबर की रात होने से पहले ही हवाओं में इंदिरा गाँधी की हत्या की दुखद खबर तैरने लगी थी. पुष्ट-अपुष्ट खबरों के बीच लोगों में इस खबर को लेकर संशय बना हुआ था. संशय के साथ-साथ लोगों में एक अनजाना सा भय भी दिख रहा था. शाम को अपनी माँ के साथ सब्जी, अन्य घरेलू समान की खरीददारी करते समय दुकानदारों के चेहरों पर, उनकी बातचीत में डर का दर्शन किया जा सकता था. सब्जी मंडी के छोटे-छोटे दुकानदार अपने सामान को लगभग समेटने के अंदाज़ में ग्राहकों को अधिक से अधिक सामान लेने की हिदायत देते जा रहे थे. इंदिरा गाँधी की हत्या हो गई है, अब कुछ न कुछ होगा जैसा भाव उनकी बातचीत में झलक रहा था. उस समय 11 वर्ष की उम्र यह समझाने के लिए बहुत थी कि अब कुछ न कुछ होगा का अर्थ क्या हो सकता है. बाज़ार से घर वापसी के दौरान बाज़ार में एक तरह का हडकंप सा मचा हुआ था. 

पिताजी के अधिवक्ता होने के और राजनैतिक सक्रिय व्यक्ति होने के कारण देर रात घर में आसपास वालों का आना-जाना लगा रहा. आने वालों की बातचीत, लोगों की खुसुर-पुसुर से ऐसा समझ आ रहा था कि इंदिरा गाँधी के किसी सिख अंगरक्षक ने उनकी हत्या की है और उरई से भी कुछ सिख भाग चुके हैं. आने वाले हर व्यक्ति को किसी अनहोनी का डर सता रहा था. शहर के मुख्य बाज़ार से कुछ दूर होने के कारण रात को किसी अनहोनी जैसी घटना सुनाई भी नहीं दी किन्तु सुबह के उजाले में कुछ और ही देखने को मिला. लगभग 10-11 बजे के आसपास घर के सामने से गुजरने वाली गली में रोज की तुलना में बहुत अधिक संख्या में लोगों की एक ही दिशा को भागमभाग मची हुई थी. हर व्यक्ति अपने हाथों में कुछ न कुछ उठाये भागा चला जा रहा था, कुछ तो अपनी शारीरिक सामर्थ्य से अधिक सामान अपने ऊपर लादे गिरते-भागते चले जा रहे थे. पूछने पर एक ही जवाब मिल रहा था कि दंगा हो गया है. पिताजी आसपास के अन्य प्रतिष्ठित लोगों के साथ बाहर निकले हुए थे, उनके वापस आने पर ही सही जानकारी मिल सकती थी. इसके बाद भी एक बात स्पष्ट दिख रही थी कि उरई में कुछ गड़बड़ हो गई है जिस कारण से यहाँ लूटपाट जैसे हालात बन गए हैं.

पिताजी के वापस आने पर पता चला कि कुलदीप नाम का एक धनाढ्य व्यापारी सिख उरई छोड़कर भाग गया है तथा लोगों में इस बात की आशंका है कि उसका भी किसी न किसी रूप में इंदिरा गाँधी हत्याकाण्ड में हाथ रहा है. अभी छोटे हो, नहीं समझोगे, अपना काम करो, जाकर खेलो जैसे वाक्यों के बीच कर्फ्यू, दंगा, लूटपाट जैसे शब्द समझ से परे थे पर इतना तो समझ आ रहा था कि उरई में कुछ गड़बड़ हो गई है. उरई में रह रहे सिख समुदाय की इंदिरा गाँधी हत्याकांड में भागीदारी की सत्यता जो भी रही हो, सिख समुदाय की इस घटना पर प्रतिक्रिया जो भी रही हो पर उग्र भीड़ ने कुलदीप की दुकान और घर को निशाना बनाने के साथ-साथ सिख समुदाय की दुकानों को, घरों को, लोगों को अपना निशाना बनाना शुरू कर दिया. कुछ दुकानों, मकानों में आग भी लगा दी गई किन्तु किसी सिख की हत्या का, उसकी जान लेने का मामला सामने नहीं आया. सिखों को, उनके परिवार वालों को प्रशासन की तथा कुछ जागरूक नागरिकों की मदद से सुरक्षा प्रदान की गई. इक्का-दुक्का मारपीट की घटनाओं को छोड़कर यहाँ लूटपाट की घटना अधिक सामने आई.

जैसा कि याद है उरई में लोगों ने हालात को बिगड़ने के स्थान पर संभालने की कोशिश की थी किन्तु चंद राजनैतिक मौकापरस्त लोगों और हालात का फायदा उठाने वालों ने अपनी कुत्सित मानसिकता दिखा ही दी थी. हालात बेकाबू न हों इसके लिए प्रशासन द्वारा कर्फ्यू भी लगाया गया. जैसा कि फिर बाद में समाचार-पत्रों में, रेडियो के समाचारों में जो कुछ, जैसा पढ़ने-सुनने को मिला उसने उस उम्र में भी रोंगटे खड़े कर दिए. कालांतर में कानपुर के उस मकान को देखने का अवसर मिला जिसमें एक परिवार के कई सदस्य जिन्दा जला दिए गए थे. कुछ और जगहों पर जाने पर उस समय के नरसंहार स्थलों को देख कर मन व्हिवल हो उठा था. अपने कुछ परिवारीजनों से इसी समयावधि में उनकी आँखों देखी सुनने के बाद तत्कालीन स्थिति की, हालात की गंभीरता को आज तक महसूस करते हैं.