अपने अइया-बाबा
के साथ, आशीर्वाद को लेकर हम जितने सौभाग्यशाली रहे, नाना-नानी (श्री मथुरा
सिंह क्षत्रिय-श्रीमती राधा रानी) के
साथ को लेकर उतने ही दुर्भाग्यशाली रहे. अपने पैतृक गाँव जाने की तुलना में, वहाँ
खेलने-कूदने की तुलना में अपने ननिहाल खूब जाना हुआ. ननिहाल में खेलना, कूदना,
खेतों में टहलना, खलिहान की सैर, बगिया में शैतानियाँ, बम्बा का स्नान, तालाब में
मस्ती खूब की गई. कई-कई मामा-मामियों के बीच लाड़ले भांजे के रूप में खूब
प्यार-दुलार मिला. ननिहाल में बचपन में बड़े भाइयों की सुरक्षा मिली और बड़े में
भाभियों का स्नेह भी मिला. इन सबके बीच कमी खलती है तो नाना-नानी का साथ बहुत
लम्बे समय तक न मिल पाने की.
बचपन की उस
अवस्था में, जिसको होश सँभालने वाली कहा जाता होगा, उसके पहले ही नाना-नानी हमसे
दूर चले गए थे. नानी की तो कई बातें याद हैं मगर नाना की मात्र एक छवि याद है और
वो भी बहुत धुंधली सी. कई बार लगता है कि नाना की वो छवि वाकई हमें याद है या फिर
सबके द्वारा सुन-सुनकर, उनकी फोटो देख-देखकर एक छवि का निर्माण दिल-दिमाग में हो
गया है. कुछ भी हो मगर नाना की एक हल्की, धुंधली सी छवि मात्र इतनी सी मन-मष्तिष्क
में बसी है जिसमें वे गाँव में घर के पास बने चबूतरे पर बैठे हैं, नीम के पेड़ के
नीचे. हम बच्चे वहाँ धमाचौकड़ी करने में लगे हैं. उसी में से वे किसी को तेज आवाज़
में बुला रहे हैं. वे हमसे भी कुछ कहते हैं पर हमें याद नहीं कि उन्होंने तेज़ आवाज़
में किसे बुलाया? हमसे उन्होंने क्या कहा? हाँ, नानी की दो-तीन घटनाएँ याद हैं.
नानी उन दिनों
उरई में हमारे तीसरे नंबर वाले मामा जी श्री जयनारायण सिंह क्षत्रिय, उनके होटल
चलाने के कारण हम सब उनको होटल वाले मामा कहकर पुकारते थे, के घर रुकी हुईं
थीं. कुछ घटनाएँ वहां की याद हैं मगर वे भी धुंधली सी. उन्हीं दिनों या फिर किसी
और समय में नानी का हमारे पाठकपुरा वाले घर आना हुआ. गर्मियों के दिन थे. हम तीनों
भाई बैठक में नानी के साथ ही खेलने में लगे थे. उस समय की घटना इसलिए भी और याद है
क्योंकि उसी समय गली में शोर सुनाई दिया तो पिताजी निकल कर बाहर आये. मोहल्ले के
कुछ लड़के किसी चोर की तलाश में भागदौड़ करने में लगे थे. उनके जाने के बाद पिताजी
ने अंदेशा जताया कि कहीं वह चोर घर के बगल की पतली गली, जो कई घरों के गंदे पानी
निकलने के लिए बनी हुई थी, उसमें तो नहीं छिपा है. छत पर चढ़कर देखने से वह व्यक्ति
दिखाई दिया, जिसे पिताजी ने बुलाकर सुरक्षित बैठक के बगल में बने कमरे में बिठाया.
पिताजी की वकील दृष्टि ने और नानी की अनुभवी नजर ने उस व्यक्ति को निर्दोष बताया.
वो युवक बहुत देर हम लोगों के संरक्षण में काँपते-डरते बैठा रहा. इस दौरान नानी ने
कई बातें हम लोगों को बहुत धीमी आवाज़ में बताईं. उनकी बताईं बातें आज स्मरण नहीं
हैं मगर उनकी छवि स्पष्ट रूप से हमें याद है.
इसी तरह हमारे नाना
मामा (श्री सुल्तान सिंह क्षत्रिय) जब भी उरई आते तो घर अवश्य आया करते. कई
बार वे रात को घर पर ही रुक जाते. संध्या करना उनकी नियमित दिनचर्या में शामिल था.
हम देखते कि वे छत पर दरी बिछा उस पर ध्यान की अवस्था में बैठते. ऐसा वे कभी रात
का भोजन करने का पहले करते तो कभी भोजन करने के बाद. एक दिन हमने उनसे बालसुलभ
जिज्ञासा में पूछ लिया कि मामा, आप क्या करते हैं शांत बैठे-बैठे? आज भी
याद है कि उन्होंने हँसकर हमें अपनी गोद में बिठा लिया. इसके बाद उनकी कही बात आज
तक अक्षरशः याद है और एक सीख की तरह दिल-दिमाग में बसी है.
मामा बोले, तुम्हारी
माँ हमारी सबसे छोटी बहिन है. वह हमारे लिए खाना बनाती है, रोटी-सब्जी बनाती है.
चूल्हे की आग से उसको गर्मी लगती होगी. ऐसे में हम भोजन करने के पहले भगवान से
कहते हैं कि हमारी बिट्टी को गर्मी न लगने देना. कभी-कभी खाना खाने के पहले ऐसा
नहीं कर पाते तो उसके बाद शांत बैठकर भगवान से कहते हैं कि हमें माफ़ करना क्योंकि
हमारे कारण बिट्टी को आज खाना बनाते में गर्मी लगी होगी. उसके कष्ट को दूर करना.
नाना मामा की
उस दिन की बात हमारे दिल में चिरस्थायी बस गई. आज भी हो सकता है कि किसी के बने
भोजन की हम तारीफ न कर पायें मगर किसी के भी बनाये भोजन में कभी कमी नहीं निकालते.
बचपन की उस सीख से यह ज्ञान मिला कि भोजन बनाने वाला कष्ट के साथ अन्नपूर्णा की
भूमिका का निर्वहन करता है.
अपने नाना-नानी
का प्यार-दुलार आज हमें भले ही याद न हो मगर ननिहाल में एकमात्र नानी का स्नेह और समय
के साथ तीन-तीन नाना-नानियों का प्यार-दुलार, विशेष रूप से कानपुर वाले नाना-नानी
का आशीर्वाद, प्यार आज भी बहुत अच्छे से याद है, हमें आज भी मिल रहा है. मामा-मामी लोगों का स्नेह, दुलार भी बराबर से मिलता रहा है, आज भी मिलता है. कानपुर, ग्वालियर, हमीरपुर कहीं भी जाना होता हो या फिर मामा-मामी से मुलाकात होती है तो अपनेपन से रचा-पगा प्यार-दुलार हमारे हिस्से भरपूर रूप से आता है. जाने कितनी यादें हैं, जो ननिहाल पक्ष की तरफ से भी हमें समृद्ध करती हैं.
शायद इसी
को प्रकृति का, परम सत्ता का न्याय कहा जाता है कि यदि किसी व्यक्ति के जीवन में
उसके द्वारा कोई कमी की जाती है तो कहीं न कहीं उसके द्वारा उसकी पूर्ति भी कर दी
जाती है. नाना-नानी की कमी को उसने नाना-नानी के द्वारा ही पूरा किया. खूब जमकर
पूरा किया.