Thursday, 16 March 2017

भुलाना उन्हें सम्भव ही नहीं, फिर से मिल पाना जिनसे मुमकिन ही नहीं


सन् 2005 की सुबह, फोन की घंटी घनघनाई और फिर शुरू हुआ आशंकाओं, चिन्ताओं का दौर. जो पास नहीं था, उसकी चिन्ता शुरू; कैसे, क्यों, क्या, कब जैसे सवालों की मार स्वयं पर सहते और स्वयं ही उसका जवाब देते. दोनों छोटे भाई निकल चुके थे और हम घर पर. सभी के मन में दुश्चिन्ताओं ने अपना कब्जा जमा रखा था. फोन पर फोन और जवाब में बस घंटी पर घंटी ही बजती रही. रास्ते में चले जा रहे छोटे भाइयों के साथ इस समस्या को बाँटने का मतलब था उनके मन में और ज्यादा परेशानियाँ भर देना. आखिरकार बात हुई, अम्मा से, चाचा से, चाची से, सबने धीरज बँधाया, दिलासा दी पर हम चिन्ताओं को कम न कर सके.

होते-होते शाम आ गई, वो शाम जिसने उस अँधियारी भरी खबर को सुनाया जो कालिख सुबह ही छा चुकी थी. शाम को पिताजी के अभिन्न मित्र, हमारे पारिवारिक सदस्य दादा का आना हुआ, साथ में दो-चार और लोग भी. आते ही उन्होंने पिताजी की तबियत के बारे में जानकारी ली. उनके द्वारा जानकारी लेने ने उन सभी संदेहों को मिटा दिया जो सुबह से दिमाग में उथल-पुथल मचाये हुए थे. आँसू भरी आँखों और भरे गले से इतना ही पूछ पाए, पिताजी को क्या हुआ? दादा ने जो स्नेहिल हाथ हमारे सिर पर फिराया उसका एहसास आज तक बना हुआ है.

बिना किसी के कुछ कहे सब स्पष्ट हो गया. दोपहर बाद से जो दिलासा दी जा रही थी वो सब सिर्फ तसल्ली देने के लिए थी. वो डरावनी शाम कैसे आँसुओं भरी रात में बदली आज भी समझ नहीं आया. लोगों का आना-जाना, समझाना और हमारा पूरा ध्यान अपनी जिम्मेवारियों पर, अपनी अम्मा पर, अपने दोनों छोटे भाईयों पर, जो पिताजी के पास पहुँचने को सुबह ही निकल चुके थे. अम्मा ने कैसे अपने को संभाला होगा? दोनों भाइयों ने कैसे समूची स्थिति का सामना किया होगा? कैसे पिताजी को इस रूप में देखा होगा?

आँसुओं का सैलाब बह निकला, दिलासा जो सुबह मिली थी वह झूठ साबित हुई, विश्वास जो अपने आपसे कर रहे थे वह बना न रह सका. अब इन्तजार ही किया जा रहा था. एकाएक सब कुछ लुटा-पिटा सा लगने लगा. सब कुछ होते हुए भी खाली-खाली सा. अपने को सँभाल कर वास्तविकता को स्वीकारा, मन को सँभाला और अब चिन्ता शुरू हुई अम्मा की, दोनों छोटे भाइयों की. कैसे सँभाला होगा दोनों ने अपने को? कैसे अम्मा ने नियंत्रित होकर सुबह हमें दिलासा दी थी? कैसे दोनों भाइयों को हिम्मत बँधाई होगी? चिन्ताओं के बीच, मन ही मन अपने आँसुओं को बहाने के बीच शुरू हुआ सामाजिक परम्पराओं के निर्वहन का दौर. हमारा और हमारे अभिन्न मित्रों के द्वारा रिश्तदारों, नातेदारों, मित्रों, सगे-सम्बन्धियों को फोन से सूचना देने का कष्टकारी दौर. हर फोन पर आँसू, हर फोन पर हिचकी और सांत्वना के दो बोल, दिलासा देते लरजते शब्द.

रात भर याद करते रहे पिताजी के साथ गुजारे अपने छोटे से 31 साल के सफर को. हम दोनों पति-पत्नी एक दूसरे को दिलासा देते रात भर इंतजार करते रहे, अन्तिम बार देख लेने का. आँखों ही आँखों में, आँसुओं में भीगी-भीगी रात समाप्त हुई, सुबह भी हुई किन्तु उजाला सा नहीं दिख रहा था. जिम्मेवारियों का निर्वहन, सामाजिक परम्पराओं का निर्वहन सब कुछ कैसे होगा, किस तरह होगा पता नहीं चल रहा था.

रुलाती-रुलाती घड़ी आ गई, आया साथ में पिताजी का पार्थिव शव और साथ में रोते-बिलखते परिवारीजन. सबको सांत्वना भी देना और स्वयं को नियंत्रित रखना, लगा कि कितनी बड़ी जिम्मेवारी एकाएक आ गई है सिर पर. परिवार में सबसे बड़े पुत्र होने का अभिमान हमेशा रहा और छोटों के लिए कुछ भी कर जाने के एहसास ने हमेशा छोटों से आदर-स्नेह भी प्राप्त होता रहा. इस बड़े होने के भाव की जिम्मेवारी इस समय समझ में आ रही थी. अपने आँसुओं को छिपाते हुए छोटों के आँसू पोंछने का काम करते, अम्मा को सँभालते, छोटों को दुलराते हुए अन्तिम यात्रा की तैयारी भी चलती जा रही थी.

संस्कारों, परम्पराओं के बीच प्रज्ज्वलित अग्नि में स्वाहा हो गया वो शरीर जिसके साथ हमने अपने व्यक्तित्व को उभरते देखा. वो आँखें जो एक सपना लेकर जीती रहीं और हमें एक अनुशासन और स्वाभिमान सिखातीं रहीं. वो हाथ जिन्होंने हमें चलना भी सिखाया और लिखना भी सिखाया, जिसके आशीष में हमने अपने आपको सदैव कष्टों से दूर रखा. लौट आये हम अपने आपको एकदम तन्हा सा करके. लौट आये हम अपने आपको अपनों से जुदा करके. लौट आये हम मिट्टी के शरीर को राख बनाकर. लौट आये हम कभी भी न भुलाने वाली यात्रा को लेकर.
आज भी लगता है कि जैसे कल की ही बात हो. पारिवारिक, सामाजिक मान्यताओं के साथ-साथ पिताजी के अनुशासन के चलते उनसे कम से कम बातचीत, काम की बातचीत के चलते उस रात एहसास हुआ कि अपने ही पिताजी से कभी खुलकर बात न कर पाए. आज भी बात कचोटती है पिताजी से बहुत बातचीत न हो पाने की. एक वो समय था और एक आज के बाप-बेटे हैं, लगता है जैसे दो मित्र हैं अलग-अलग आयुवर्ग के. क्या सही है, क्या गलत पता नहीं क्योंकि सही अपना समय भी नहीं लगता आज और आज का समय भी हमें नहीं सुहाया आज तक.

बहरहाल, एक दशक से अधिक समय हो गया पिताजी को गए. अब बस आसपास के आयोजन, आसपास की हलचल, घर-परिवार की क्रियाविधि, क्रियाकलाप देखकर इतना ही कह पाते हैं कि पिताजी होते तो ऐसा होता, ऐसा न होता. बहुत कुछ अधूरा रह गया था, उनके द्वारा देखना, उनके द्वारा पूरा करना. कोशिश तो बराबर रही कि हम पूरा कर सकें, बड़े होने के नाते सभी छोटों को उनकी कमी न महसूस होने दें मगर पिता तो पिता ही होता है, कोई भी उसकी जगह नहीं ले सकता. हम भी नहीं ले सके हैं, नहीं ले सकेंगे क्योंकि हमारे पिताजी वाकई हमारे पूरे परिवार की धुरी थे, आज भी होंगे, यही सोचकर उनके सोचे हुए काम पूरे करने की कोशिश में हैं. अब इसमें कितना सफल होंगे, ये तो आने वाला वक्त बताएगा, परिवार के बाकी लोग बताएँगे.

आज भी आँख बन्द करते हैं तो अपने आसपास अपने पिताजी का होना पाते हैं. याद करते हैं बीते पलों को और सोचते हैं कि काश! ऐसा कर लिया होता, वैस कर लिया होता. वे होते तो ऐसा करते, वे करते तो कुछ ऐसा होता. अब बस यादें ही यादें. कुछ दुलराती, कुछ गुदगुदाती यादें, कुछ हँसाती तो कुछ मधुरता बिखेरती किन्तु अब तो हर याद में आँखें नम होतीं हैं, हर याद में.

भुलाना उन्हें सम्भव ही नहीं, फिर से मिल पाना जिनसे मुमकिन ही नहीं! यादों में ही मिलने का जतन करते हैं, सपनों में उन्हें खोजने का प्रयत्न करते हैं. बहते आँसुओं के साथ पल-पल उनको याद करते हुए. बस याद ही करते हुए, यादों में ही बसाये हुए उनके बताये-बनाये रास्तों पर आगे बढ़ने का प्रयास करेंगे. 


Wednesday, 15 March 2017

ख़ुशी का पल समेटे आना हुआ भांजेश्री का


हम सभी लोग हॉस्पिटल की पहली मंजिल पर बने बरामदे के बाहर बैठे हुए थे. चाचा-चाची, बहनोई साहब संदीप सिंह और हम. हॉस्पिटल में बैठे होने के बाद भी किसी के चेहरे पर तनाव नहीं था. सभी को खुशखबरी का इंतजार था. वहाँ बैठे हम लोगों में कुछ देर बाद कोई पापा बनने वाला था, कोई नाना-नानी बनने वाला था और हम मामा बनने वाले थे. हम सभी लोग हँसी-ख़ुशी ऑपरेशन थियेटर की तरफ जाते गलियारे पर अपनी-अपनी निगाहें टिकाये हुए थे. छोटी बहिन दीपू की पहली संतति संसार में आँखें खोलने का इंतजार कर रही थी. ऐसे खुशनुमा माहौल में हमारे बहनोई साहब थोड़ा व्याकुल से नजर आ रहे थे. उनकी व्याकुलता जहाँ ऑपरेशन को लेकर थी वहीं वे अपने पापा जी के वहां न दिखाई पड़ने से भी चिंतित दिख रहे थे. एक-दो बार ऊपर-नीचे देख आने के बाद भी पापा जी उनको न दिखाई दिए. 

वे और हम भी दो-तीन बार ऑपरेशन थियेटर की तरफ चक्कर लगाकर खुशखबरी का पता-ठिकाना पूछ चुके थे. इसी बीच बहनोई साहब कुछ प्रसन्न सी मुद्रा में और भी ज्यादा आकुलता से अपने पापा को खोजने लगे. ऑपरेशन थियेटर की तरफ से प्रसव सुरक्षित होने का इशारा मिला तो हम सब ख़ुशी से झूम उठे. दरवाजे पर नर्सों की एक झलक पाकर उनसे होने वाले बच्चे के बारे में जानना चाहा, उसके स्वास्थ्य के बारे में जानना चाहा, बच्चा लड़का है या लड़की जानना चाहा पर वे मुस्कुराकर अन्दर चली गईं. संभवतः बहनोई साहब ने उनको न बताने के लिए कह रखा था. उसके पीछे का कारण ये भी समझ आया कि वे सबसे पहले इस खुशखबरी को अपने पापा को देना चाहते होंगे. उनसे भी जानने की कोशिश की तो वे हाथ उठाकर मुस्कुराते हुए पापा की खोज में नीचे उतर गए.

सब्र यहाँ किसी को नहीं था, आखिर हम भी मामा बन रहे थे. चाचा-चाची भी नाना-नानी बन रहे थे. बहनोई साहब के नीचे उतरते ही हम बरामदे से लगे बगल के कमरे में घुसे. इसी कमरे से ऑपरेशन थियेटर का रास्ता जाता था, जो नर्सिंग होम के स्टाफ द्वारा उपयोग किया जाता था. जिन नर्सों की झलक दिखाई पड़ी थी, उनमें से दो वहीं बैठी थीं. हमने थोड़ी तेज आवाज़ में कहा, कहाँ है बच्चा? भोपाल शहर की आबोहवा में बुन्देलखण्ड की तेज़ आवाज़ सुनकर वे शायद सहम सी गईं. ये जानते-समझते ही हमने उनसे कहा कि हम बच्चे के सबसे बड़े मामा हैं. उसमें से एक नर्स ने मुस्कुराकर रुकने का इशारा किया. 

अगले पल ही वो अपनी गोद में नन्हे से भांजे को लेकर प्रकट हो गई. उसके हाथ से हमने अपने हाथों में लेकर उसके माथे पर आशीर्वाद स्वरूप अपने होंठ लगा दिए. कोमल, मुलायम, मासूम से अपने भांजे को एक निगाह जी भर कर देखने के बाद उसे उसी नर्स के सुरक्षित हाथों में सौंप दिया. ख़ुशी जैसे रोम-रोम से प्रकट हो रही थी. पर्स से कुछ रुपये निकालकर नवजात शिशु की न्योछावर करके नर्स से कहा कि किसी कामवाली बाई को दे देना. एक नर्स ने हँसकर कहा कि क्या मामा जी, हमने भांजे के दर्शन करवाए, हमें कोई नजराना नहीं? बिना कुछ कहे, मुस्कुराकर उन तीनों को भी यथोचित नजराना देकर हम बाहर आ गए.

इसी दौरान बहनोई साहब अपने पापा जी को लेकर मिठाई सहित आ गए. उनके पापा जी गहरी धार्मिक आस्था वाले सुकोमल, सहृदय व्यक्ति हैं. वे उसी समय से नर्सिंग होम के पास बने एक छोटे से मंदिर के सामने ध्यानमग्न होकर भगवान की साधना में बैठ गए थे जैसे ही दीपू को ऑपरेशन थियेटर ले जाया गया था. जिस समय हम अन्दर अपने भांजे को देख रहे थे, उसी समय बहनोई साहब ने आकर नवजात शिशु के लड़का होने की बात सबको बताई. हमें गायब देखकर हमारे बारे में वे पूछ ही रहे थे कि हमने अन्दर से आकर सबको आश्चर्य में डाल दिया कि हम सबसे पहले अपने भांजे से मिल आये.

हॉस्पिटल में कुछ दिन रुकना पड़ा. चाची, बहनोई साहब, हम लगातार समय-समय से रुकते. नर्सिंग होम से छुट्टी मिलने पर हम ही अपने भांजे, छोटी बहिन दीपू को लेकर उनके घर पहुँचे, जहाँ उसके चाचा अपने पहले भतीजे के इंतजार में पटाखे सजाये बैठे थे. आतिशबाजी के साथ पापा, मम्मी, छोटू ने अपने परिवार के नए सदस्य का स्वागत किया. 

हमारे भांजे श्री आज भी हम सबके अत्यंत प्रिय हैं. हमारे बाद की पीढ़ी में हमारे परिवार की पहली संतति होने के कारण, पहले भांजे होने के कारण प्रिय तो हैं ही. इसके अलावा यह संयोग ही कहा जायेगा कि उसके जन्म के कुछ समय बाद छोटी बहिन दीपू की ट्रेनिंग उरई रहकर ही पूरी हुई और फिर उसकी नियुक्ति भी उरई के नजदीक उन्नाव में हो गई. इससे भी नियमित रूप से भांजे श्री से हम सबका संपर्क बना रहा. बचपन के साथ-साथ अपना कैशौर्य भी ननिहाल वालों के साथ गुजारने के कारण भी वे हम सबके प्रिय बने हुए हैं.

बुन्देलखण्ड में मामा-भांजे का जो रिश्ता है, उस रिश्ते के चलते वो सारे मामाओं की हँसी-मजाक का शिकार भी बनता है. इसका एक उदाहरण हमारे द्वारा किया गया उसका नामकरण भी है. सबके द्वारा बुलाये जाने वाले सनय सिंह अपने जन्म से ही हमारे द्वारा कल्लू सिंह पुकारे जा रहे हैं, अभी भी इसी नाम से पुकारे जाते हैं. मुँह बनाकर उसका चिढ़ना होता रहता है और हमारे साथ-साथ उसके और मामा लोग भी उसे चिढ़ाने का आनंद लेने लगते हैं.



Sunday, 12 March 2017

होली का हुड़दंग रेलवे स्टेशन तक


होली आये और होली में किये हुए हुड़दंग भी याद न आयें तो समझो कि होली मनाई ही नहीं. हम लोग संयुक्त परिवार में रहते आये हैं और बचपन से ही सभी परिजनों के साथ ही होली का मजा लूटते रहे हैं. होली जलने की रात से शुरू हुआ धमाल कई-कई दिनों तक चलता रहता था. बचपन में अपने बड़ों की मदद से होली का हुड़दंग किया जाता था जो बड़े होने पर स्वतंत्र रूप में बदल गया. हॉस्टल का माहौल पारिवारिकता से भरपूर था. हम सभी छात्रों के बीच किसी तरह का भेदभाव नहीं था. पहला ही साल था और हम सभी मिलकर दीपावली, दशहरा आदि अपने-अपने घरों में मनाने के पहले हॉस्टल में एकसाथ मना लिया करते थे. इसी विचार के साथ कि होली भी घर जाने के पहले हॉस्टल में मना ली जायेगी सभी कुछ न कुछ प्लानिंग करने में लगे थे.

हम कुछ लोगों का एक ग्रुप इस तरह का था जो हॉस्टल की व्यवस्था में कुछ ज्यादा ही सक्रिय रहा करता था. इसी कारण से उन दिनों हॉस्टल की कैंटीन की जिम्मेवारी हम सदस्यों पर ही थी. होली की छुट्टियां होने के ठीक दो-तीन दिन पहले रविवार था. रविवार इस कारण से हम लोगों के लिए विशेष हुआ करता था कि उस दिन एक समय, सुबह ही, भोजन बना करता था. खाना बनाने वाले को रात के खाने का अवकाश दिया जाता था. इसी वजह से रविवार को पूड़ी, सब्जी, खीर, रायता आदि बनाया जाता था.

हम सदस्यों ने सोचा कि कुछ अलग तरह से इस दिन का मजा लिया जाये. हमारी इस सोच में और तड़का इससे और लग गया जब पता चला कि हॉस्टल के बहुत से छात्र उसी रविवार को अपने-अपने घर जा रहे हैं. रविवार के भोजन को खास बनाने की योजना हम दोस्तों तक रही और अन्य सभी छात्रों के साथ आम सहमति बनी कि होली इसी रविवार को खेली जायेगी, उसके बाद ही जिसको घर जाना है वो जायेगा. अपनी योजना के मुताबिक उस दिन खीर में खूब सारी भांग मिलवा दी. इस बात की चर्चा किसी से भी नहीं की. सभी ने मिलकर खाना खाया और हम दोस्तों ने सभी को खूब छक कर खीर खिलवाई. मीठे के साथ भांग का नशा और उस पर होली की हुड़दंग का सुरूर. हॉस्टल के सभी छात्रों पर तो जैसे मस्ती खुद आकर विराज गई हो. खूब दम से होली खेली जाने लगी, टेप चलाकर गानों के साथ नाच भी शुरू हुआ. किसी के बीच सीनियर-जूनियर जैसी बात नहीं दिख रही थी.

इसी बीच कुछ छात्र जो होली नहीं खेलना चाहते थे और उन्हें घर भी जाना था, सो उन्होंने खीर भी इतनी नहीं खाई थी कि नशा उनको अपने वश में करता. ऐसे लगभग पांच-छह छात्रों ने हॉस्टल की दीवार फांदकर रेलवे स्टेशन की ओर भागना शुरू किया. उनके दीवार फांदने का कारण ये था कि हम सभी रंगों से भरी बाल्टी आदि लेकर दरवाजे पर ही बैठे थे ताकि कोई भी बिना रंगे घर न जा पाये. हम लोगों को भनक लग गई कि कुछ लोग जो हमारी इस होली में साथ नहीं हैं वे पीछे से भाग गये. बस फिर क्या था, होली का हुड़दंग सिर पर चढ़ा हुआ था, भांग का नशा अपनी मस्ती दिखा ही रहा था, हम सभी जो जिस तरह से बैठा था वैसे ही रेलवे स्टेशन की तरफ दौड़ पड़ा. 

कोई नंगे पैर तो कोई एक पैर में चप्पल-एक पैर में जूता बिधाये; कोई शर्ट तो पहने है पर पैंट गायब तो कोई नंगे बदन दौड़े ही जा रहा था. और तो और उन्हें रंगना भी था जो बिना रंगे निकल पड़े थे तो हाथों में रंगों से भरी बाल्टी भी लिये सड़क पर दौड़ चल रही थी. आप सोचिए कि बिना होली आये, होली जैसी मस्ती को धारण किये एकसाथ दस-पंद्रह लड़के बिना किसी की परवाह किये सड़क पर दौड़े चले जा रहे थे. लगभग चार-पांच किमी की दौड़ लगाने के बाद स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर हुरियारों की टोली पहुंच ही गई, वे भी स्टेशन पर बरामद कर लिए गये जिनको रंगना था. बस फिर क्या था चालू हो गई होली रेलवे स्टेशन पर ही. मस्ती का मूड, भांग का सुरूर, अपने साथियों को रंगने के बाद अपनी तरह के ही कुछ मस्ती के दीवाने यात्रियों को भी रंगना शुरू किया गया. कुछ देर का हुल्लड़ देखने के बाद प्लेटफॉर्म पर बनी चौकी के सिपाहियों ने आकर दो-दो हाथ  करने चाहे तो रंगीन हाथ उनके साथ भी हो गये. बाद में समझाने पर सभी वापस हॉस्टल लौट आये.

भांग का नशा तो दूसरे दिन दोपहर तक उतर गया किन्तु सिर का भारीपन दो दिनों तक बना रहा. इसी भारीपन में नीबू चूस-चूस कर अपनी प्रयोगात्मक परीक्षा दी, जो सोमवार को सुबह सम्पन्न हुई. रेलवे स्टेशन की हमारी होली की खबर हमारे हॉस्टल वार्डन डॉ० धीरेन्द्र सिंह चन्देल साहब के पास तक आ चुकी थी. सभी प्रोफेसर्स को भी पता था कि हम लोग किस तरह की मस्ती के बाद प्रयोगात्मक परीक्षा दे रहे हैं. यह तो भला हो उन सभी गुरुजनों का जिन्होंने पूरे सहयोग के साथ हमारी होली के आनन्द और प्रयोगात्मक परीक्षा के बीच संतुलन बिठा दिया.

आज भी कभी-कभी होली में भांग का स्वाद लेने का प्रयास किया जाता है तो हॉस्टल की होली और रेलवे स्टेशन का हुड़दंग याद आये बिना नहीं रहता है.

Friday, 10 March 2017

सम्मान हमारी कलम को, लेखन को


मंचासीन सत्र अध्यक्ष की ओर से इशारा होते ही संचालक महोदय ने भोजनावकाश का संकेत किया. राजकीय महाविद्यालय, चरखारी के सभागार में मनोविज्ञान विषय पर आयोजित राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में उपस्थित लोग अपनी-अपनी जगह से उठकर भोजन कक्ष की तरफ चल दिए. कुछ लोग अतिथियों से परिचय का आदान-प्रदान कर रहे थे. कुछ लोग धीरे-धीरे चलते हुए विषय से सम्बंधित विद्वानों से विमर्श करते जा रहे थे. एक हॉल में भोजन की व्यवस्था की गई थी. आधुनिक परिपाटी से इतर सभी अतिथियों को, आमंत्रितजनों को कुर्सी-मेज पर ससम्मान बिठाकर भोजन करवाया जा रहा था. वरिष्ठजनों को आगे बढ़ाते हुए उरई से एकसाथ पहुँचे हम कुछ मित्र अपने बैठने की व्यवस्था देखने में लग गए. 

तभी आप वही कुमारेन्द्र सिंह सेंगर जी हैं जो अमर उजाला में लिखते हैं? के द्वारा एक लड़की ने अपना संशय दूर करना चाहा. उसके प्रश्नवाचक वाक्य को जैसे ही हमारी सहमति मिली उस लड़की सहित अन्य चार-पांच छात्र-छात्राओं के चेहरे पर अनोखी चमक सी फ़ैल गई. उन लोगों के द्वारा अभिवादन करने, उनके हावभाव से ऐसा लगने लगा जैसे बहुत बड़ा नाम उन लोगों के सामने खड़ा हो.

अभी तक प्रकाशित हो चुके तमाम पत्रों की सामग्री, उसी राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत किये गए शोध-पत्र की चर्चा, आगे किस विषय पर लिखेंगे सहित कई विषयों पर बात हुई. उन लोगों ने इस पर भी राय माँगी कि वे लोग भी लिखना चाह रहे हैं, कैसे लिखा जाये, कैसे छपा जाये, क्या लिखा जाये जिसे पढ़ा जा सके आदि-आदि. एक तरफ उन लोगों के द्वारा बातचीत का क्रम जारी था और दूसरी तरफ वे छात्र-छात्राएं हम लोगों के लिए उसी हॉल में एक किनारे कुर्सी-मेज की अतिरिक्त व्यवस्था कर चुके थे. ऐसा समझ आया कि सबके बीच हम लोगों को बिठाकर वे अपनी बातचीत का, संपर्क का अवसर खोना नहीं चाह रहे थे. भोजन करवाते समय उनका आसपास रहना, उसके बाद सभागार में भी साथ-साथ रहना, अनेक बिन्दुओं पर चर्चा करना, लेखन सम्बन्धी अपनी समस्याओं-जिज्ञासाओं का समाधान चाहना हमें अपने आपमें अद्भुत अनुभव करवा रहा था. 

टीवी पर किसी कलाकार, लेखक, साहित्यकार आदि द्वारा अधिकतर यह कहते सुना कि उसका सबसे बड़ा सम्मान उसके पाठकों, दर्शकों का प्यार, स्नेह, समर्थन है. तब ऐसी बात बड़ी आदर्शात्मक लगती थी किन्तु चरखारी के उस अनुभव ने उस आधार पर खड़ा कर दिया जहाँ कि अपने प्रशंसकों का प्यार, स्नेह, सम्मान ही सबसे बड़ा पुरस्कार लगता है. उरई से चरखारी जाते समय हमारे अन्दर उत्साह, रोमांच था अपनी पहली राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में सहभागिता करने का. अब जबकि चरखारी से उरई के लिए वापसी कर रहे थे तब अपनी लेखन-क्षमता का विस्तार, अपने पाठकों का प्यार मिलता देखकर अपार ख़ुशी का अनुभव हो रहा था.

Thursday, 9 March 2017

जो गुजर गई सो गुजर गई

होश संभालने के बाद से खुद को खुद से ही अलग पाया. अतीत को लादकर चलने की आदत नहीं रही और भविष्य के लिए परेशान नहीं रहे. वर्तमान को अपना समझा और उसको खूब मौज-मस्ती के साथ जिया भी. इसका अर्थ यह भी नहीं कि अतीत से कुछ सीखा नहीं और भविष्य के लिए कोई सपना देखा ही नहीं. सीखने वाली बातों को सीखा और सपनों के लिए बिना परेशान हुए सपनों को देखा, खूब देखा और उन्हें पूरा करने का प्रयास भी किया. 

आँख खुलने के साथ नए दिन का आरम्भ और फिर कोई नया सपना. कभी खुद से जुड़ा हुआ, कभी अपनों से जुड़ा हुआ, कभी समाज के लिए, कभी देश के लिए. सपनों की कोई कीमत तो अदा करनी न थी सो खूब सारे सपने देखे. मौज-मस्ती के सपने देखे, कुछ विशेष करने के सपने देखे. तमाम सारे सपनों के बीच कभी भी एक सपना नहीं देखा, वो था शादी करने का, परिवार बसाने का. कारण कभी समझ भी नहीं आया कि जिस उम्र में प्रत्येक युवक-युवती अपने विवाह, अपने जीवनसाथी के बारे में सपने सजाते रहते हैं, उस उम्र में भी हमने शादी के बारे में, अपने जीवनसाथी के बारे में नहीं सोचा था.

ऐसा नहीं कि हमारे मित्रों की सूची में लड़कियाँ न रही हों; लड़कियों के प्रति आकर्षण न हो; लड़कियों की तरफ से प्रेम-प्रस्ताव न मिले हों; हमें प्रेम न हुआ हो मगर किसी के प्रति उसको जीवनसाथी के रूप में देखने का भाव नहीं जागा. हाँ, एक के प्रति ऐसा भाव जागा भी तो इतनी देर से कि वो सामने होकर भी सामने न थी; पास होकर भी बहुत दूर थी. जब कभी अपने शादी सम्बन्धी सपने न देखने का कारण सोचते, उस पर विचार करते तो लगता कि जो कुछ करने का हमारा मन है, जिस तरह का हमारा स्वभाव है वह किसी बंधन को स्वीकार नहीं कर पायेगा. यदि किसी भी तरह से उस बंधन को स्वीकार किया भी तो जिम्मेवारी की भावना के चलते शेष सपनों के प्रति अवरोध सा उत्पन्न हो जायेगा.

हो सकता है, विवाह बहुत से लोगों के लिए बंधन न हो, आवश्यक अथवा अनिवार्य प्रक्रिया हो पर हमारे लिए बंधन इस दृष्टि से है कि कोई एक लड़की अपने समूचे घर-परिवार को छोड़कर, सारे रिश्तों को एक रिश्ते पति के लिए पीछे छोड़कर आती है. दो लोगों से आरम्भ परिवार समय के साथ विकास करता है. यही वे सारी स्थितियाँ होती हैं जो जिम्मेवारी की माँग करती हैं. जब सपनों की दुनिया में हर फ़िक्र को धुंए में उड़ाता चला गया का दर्शन रहा हो; समूची धरती को दो कदमों से नाप लेने की मंशा हो; सारे सौन्दर्य को कैमरे के सहारे अपनी मुट्ठी में कैद करने की अकुलाहट हो; कभी हसरत थी आसमां छूने की, अब तमन्ना है आसमां के पार जाने की जैसा दर्शन हो तब कोई भी अनचाही जिम्मेवारी बंधन ही महसूस होती है.

घर में सबसे बड़े होने के नाते न चाहते हुए भी अंततः उस बंधन को स्वीकार करना पड़ा, जिसके बारे में कभी विचार भी नहीं किया था. एक निर्णय से सारे के सारे सपने ध्वस्त होते दिखे. अस्थिर आर्थिक आधार पर तो खुद खड़े थे और अब एक लड़की को उसी अस्थिरता पर लाने वाले थे. कुछ अलग सा करने की दुनिया अब बंधे-बंधाये तरीकों से संचालित होने वाली थी. हर फ़िक्र को धुंए में उड़ाने की दम रखने वाला व्यक्ति फिक्रमंद होने जा रहा था. भविष्य की परवाह न करने वाले को भविष्य की चिंता सताने लगी. आखिर अब सवाल सिर्फ खुद के अस्तित्व का नहीं, उसके अस्तित्व का अधिक था जिसे हमारे भरोसे आना था. उनके अस्तित्व का था जिनको हम दोनों के भरोसे जन्मना था. ऊहापोह में रहकर अपनी सपनीली दुनिया को पीछे कर परिवार की ख़ुशी में शामिल हो गए. अम्मा-पिताजी सहित बाकी परिवार की ख़ुशी अपने सपनों से बहुत-बहुत बड़ी लगी. पल-पल सरकती ज़िन्दगी आखिरकार 08 दिसम्बर 2003 को आकर रुक गई जबकि हम दोनों ने एकदूसरे को जयमाला पहनाकर अग्नि के सात फेरे लिए.

परिजनों, इष्ट मित्रों, सहयोगियों की भीड़ होने के बाद भी अकेले से इलाहाबाद पहुँचे और 09 दिसम्बर को एक जिम्मेवारी, एक बंधन लेकर वापस लौटे. नहीं पता था कि साथ आने वाला कितना सहयोगी बनेगा? नहीं मालूम था कि आने वाला हमारे सपनों की दुनिया को कितना आगे ला पायेगा, ला भी पायेगा या नहीं? नहीं पता था कि उसके साथ उसके कौन-कौन से सपने आ रहे हैं? नहीं मालूम था कि उसके सपनों की सम्पूर्णता हमारे द्वारा किस तरह, कैसे होगी? रौशनी के बीच सबकुछ अँधेरे में था. पहली रात एक शाल, एक चाँदी का सिक्का जीवन-संगिनी निशा के हाथों में रखकर उससे अपनी अपेक्षा व्यक्त की कि तुमको कभी सुख-सुविधाओं की कमी नहीं होने देंगे बस पारिवारिकता का धन तुम संभाले रहना.

समय गुजरता रहा, इस बीच पिताजी का देहांत, हमारी दुर्घटना, छोटे भाई-बहिनों की शादी, बच्चों का जन्म, परिवार के अन्य मांगलिक कार्यक्रमों सहित अनेक छोटी-बड़ी घटनाएँ हम दोनों के बीच से गुजरीं. तमाम सारे विषयों पर सहमति भी बनी, तमाम असहमतियाँ भी रहीं. प्रेम-स्नेह भी दिखा, कहा-सुनी भी हुई. इसके बाद भी विगत एक दशक की दाम्पत्य यात्रा का हम अपनी दृष्टि से जब खुद का आकलन करते हैं तो अपने आपको असफल ही पाते हैं. सामाजिक जिम्मेवारियों, लेखकीय दायित्व आदि के बीच पारिवारिक जिम्मेवारियों का निर्वहन करने के बाद भी इस जिम्मेवारीपूर्ण निर्वहन में खुद में कुछ कमी पाते हैं. अनेकानेक बार ये निर्णय अपने ही कदमों में बंधन महसूस होता है. पारिवारिक जिम्मेवारियों के साथ पूर्ण न्याय सा नहीं दिखता है. शादी के लिए हाँ कहने का निर्णय कभी न सुधार सकने वाली गलती दिखाई देती है.

कभी लगता है कि एक बार परिवार के इस निर्णय का तीव्र विरोध कर लिया होता तो अधिक से अधिक क्या होता, तमाम सारी अच्छाइयों के बाद भी परिवार में बनी हमारी विरोधात्मक छवि, लड़ाकू छवि, न दबने की छवि, विद्रोही प्रकृति की छवि, जिद्दी छवि में थोड़ी सी और बढ़ोत्तरी हो जाती. फिलहाल, जो हो गया सो हो गया, जो गुजर गई सो गुजर गई.