Monday, 28 December 2015

हॉस्टल का वो पहला दिन


पढ़ना भी अपने आपमें एक समस्या होती है. क्या पढ़ना है, कहाँ पढ़ना है, क्यों पढ़ना है आदि-आदि सहित और भी न जाने कितने सवाल. अब धरती पर आये, पढ़े-लिखे परिवार में आये तो यकीनन पढ़ना हमारी भी जिम्मेवारी बनती थी. सो पढ़े, मन लगाकर पढ़े और पास हो गए इंटरमीडिएट. पहले तो हाईस्कूल के बाद समस्या उठी थी कि क्या पढ़ना है? अब इंटरमीडिएट पास कर लिया तो फिर वही समस्या खड़ी हो गई कि क्या पढ़ना है, कहाँ पढ़ना है. अब आगे क्या पढ़ा जाये, कहाँ पढ़ा जाये, क्यों पढ़ा जाये जैसे सवालों से जूझते हुए हमने एलान सा कर दिया कि उरई के डी०वी० कॉलेज में नहीं पढ़ेंगे. इसका कारण था उस समय वहाँ बेहिसाब नक़ल का होना. यहाँ हमारा ऐलान हुआ, उधर पिताजी ने भी लौटती डाक की तरह से निर्णय सुना दिया कि उरई नहीं पढ़ना, तो क्या विदेश जाओगे पढ़ने? इस सम्पुट के कुछ अन्तराल बाद सुखद संदेशा फिर सुनाई दिया, ग्वालियर करवा देते हैं एडमीशन. 

कुछ आवश्यक भागदौड़ के बाद हमारा एडमीशन ग्वालियर में हो गया. अरे जी! ग्वालियर किसी संस्था का नाम नहीं है, ग्वालियर शहर के साइंस कॉलेज में हमारा एडमीशन हो गया, बी०एस-सी० में. पढ़ने का बंदोवस्त किया गया तो रहने की व्यवस्था भी की गई. हमारे सबसे छोटे चाचा यानि कि हम सबके भैया चाचा जो उनके भारतीय स्टेट बैंक वालों के लिए श्री धर्मेन्द्र सिंह सेंगर थे, उस समय ग्वालियर में ही रह रहे थे. उनके यहाँ रहने की व्यवस्था की बजाय कॉलेज के हॉस्टल को वरीयता दी गई. कॉलेज के एडमीशन होते ही हॉस्टल में भी प्रवेश मिल गया.

कॉलेज, हॉस्टल, रैगिंग, सीनियर्स आदि के डर को अपने में समेटे पहले दिन हमने पिताजी और चाचा जी की छत्रछाया में हॉस्टल की उस देहरी का स्पर्श किया जो आने वाले सालों में हमारी अत्यंत प्रिय जगह बन गई. हॉस्टल प्रवेश द्वार पर सबसे पहली मुलाकात हुई बी०एस-सी० प्रथम वर्ष के छात्र अनुराग से. फलों के स्वाद के साथ मित्रता की मिठास का शुभारम्भ हुआ, जो आजतक अपना मीठापन बनाये हुए है. अनुराग ने हमसे कुछ दिन पहले ही हॉस्टल में प्रवेश लिया था. उसकी रैगिंग भी हो चुकी थी. जब उसने अपनी रैगिंग के किस्सों की, हॉस्टल के सीनियर्स के व्यवहार की चर्चा की तो हमारी जान में जान आई. जहाँ एक तरफ हमारे भीतर का डर दूर जाता दिखा वहीं दूसरी तरफ पिताजी-चाचा जी भी संतुष्ट दिखे.

हॉस्टल का वह पहला दिन अत्यंत खुशनुमा बीता. पहले दिन ही सीनियर्स से बड़े भाइयों जैसा स्नेह मिलना इतना शुभ रहा कि पूरे तीन वर्ष निसंकोच, निर्द्वन्द्व, बेफिक्र होकर कब बीत गए पता ही नहीं चला. अपने सीनियर्स, सहपाठी तथा जूनियर्स भाइयों का इतना सहयोग, स्नेह, प्यार रहा कि आज भी उस हॉस्टल लाइफ में वापस जाने का मन करता है.


Saturday, 26 December 2015

वीडियो चलवाना भी सामूहिक पर्व हुआ करता था

बड़ा सा टीवी जो लकड़ी के बक्से में बंद. काले-सफ़ेद, झिलमिल करते चित्र, एक जगह स्टैंड पर रखा, छत पर लगे हवाई जहाजनुमा एंटीना के तार से बंधा. अभी इस आश्चर्य से पूरी तरह मुक्ति भी न पा सके थे कि वीडियो के अवतार ने रोमांचित कर दिया. काले-सफ़ेद की जगह रंगीन चित्र. बड़े से भारीभरकम एंटीना का कोई चक्कर नहीं. किसी एक घर की जागीर नहीं, आज इसके घर तो कल उसके घर.

पूरे मोहल्ले में जोश भर जाता था. आज कोई व्यक्ति वीडियो चलवा रहा है तो कल कोई दूसरा व्यक्ति. आज बरगदिया तरे (नीचे) तो कल पीली कोठी पर पाखर के पेड़ के नीचे. बरगदिया हमारे पाठकपुरा मोहल्ले में वो प्रसिद्द जगह थी जहाँ एक विशालकाय बरगद का पेड़ लगा हुआ था. ये वृक्ष आज भी उसी तरह मौजूद है. उसके किनारे एक मंदिर और आसपास मकान बने हुए थे. ये जगह हम बच्चों के खेलने-कूदने की जगह हुआ करती थी तो बड़ों के विमर्श का मंच. सभी लोग उस जगह को बरगदिया तरे अर्थात बरगद के पेड़ के नीचे से ही जानते-पहचानते-संबोधित करते थे. हाँ, तो बात हो रही थी वीडियो की. किसी दिन सामूहिक चंदा करके वीडियो चलता तो किसी दिन कोई अपनी रईसी दिखाते हुए सारा खर्चा खुद ही करता.

मोहल्ले में लगभग रोज ही वीडियो पर फिल्मों का चलना होता किन्तु हम भाइयों को किसी-किसी दिन ही विशेष परिस्थितियों में, कुछ शर्तों के अनुपालन के बाद किसी बड़े के संरक्षण में फिल्म देखने को मिल पाती. ऐसी सुविधा भी हमें दिखाई जाने वाली फिल्मों के चरित्र के आधार पर उपलब्ध करवाई जाती थी.  ऐसी अनुशासनात्मक बंदिशों के बाद भी कई बार चोरी से फिल्मों का दिख जाना हो जाता था. ऐसा गर्मियों की रातों में ही हो पाता था जबकि रात में छत पर सोने के दौरान आसपास के घरों की छतों पर चलते वीडियो हमें भी लाभान्वित कर जाते. चारपाई को अपने छत की छोटी सी चहारदीवार के सहारे टिका कर उसी पर बैठकर वीडियो क्रांति का चोरी-चोरी लाभ उठा लेते.

वीडियो के उस क्रांतिकारी प्रदर्शन के दौर में मोहल्ले के बच्चों में फिल्म देखने की प्रतियोगिता सी चल पड़ी. कौन सी फिल्म कितनी बार देखी गई, इस बात को लेकर आपस में होड़ लग गई. शहंशाह, नगीना, शराबी, संतोषी माता, प्रेम रोग जैसी फिल्मों को कुछ बच्चों द्वारा पंद्रह-बीस बार देखने का ऐलान सा कर दिया गया. उधर मोहल्ले के बच्चों की फिल्म देखने की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही थी और इधर हमारे खाते में सीमित संख्या बनी हुई थी. पारिवारिक अनुशासन और माहौल का नुकसान भले ही ये रहा हो कि मोहल्ले के बच्चों के साथ फिल्मों की संख्यात्मक प्रतियोगिता में हम फिसड्डी बने रहे पर गुणात्मक रूप में अपने समय की बेहतरीन फ़िल्में देखने का अवसर हमको बचपन में ही मिल गया था. फिल्म जगत के तमाम नामचीन कलाकारों द्वारा अभिनीत बेहतरीन फिल्मों को देखने का मौका मिला. उनमें से बहुत सी फ़िल्में तो समझ आ जाती और बहुत सी ऐसी होती जिन्हें बस देखते ही रहते, देखते ही रह जाते. तब देखते रह जाने वाली ऐसी फिल्मों का अर्थ, उनके कथ्य को अब जाकर समझा.