गर्मियों के दिन आते हैं और जब कभी हम सभी आँगन में बैठ कर एकसाथ भोजन करते हैं तो अपने बचपन का एक किस्सा याद आ जाता है. छोटे-छोटे हाथों से पहली कोशिश रोटी बनाने के पहले आटा गूँथने की. बात उन दिनों की
है जब हम कक्षा आठ में या नौ में पढ़ रहे होंगे. गरमी के दिन थे और परीक्षाओं के प्रेत
से भी मुक्ति मिल चुकी थी, मई या जून की बात होगी. गरमी के कारण या फिर किसी और कारण से अम्मा
जी की तबियत कुछ बिगड़ सी गई. अपनी क्षमता के अनुसार उन्होंने उस दशा में भी हम तीनों
भाइयों का और घर का सारा काम सम्पन्न किया. लगातार काम करते रहने और कम से कम आराम
करने के कारण अम्मा की तबियत ज्यादा ही खराब हो गई.
अम्मा तो पड़ गईं
बिस्तर पर और मुसीबत आ गई हम भाइयों की. खाने की समस्या, सुबह नाश्ते की दिक्कत. पड़ोसी हम लोगों को बहुत
ही अच्छे मिले हुए थे इस कारण समस्या अपना भयावह स्वरूप नहीं दिखा पाती थी. बगल के
घर की दीदी आकर मदद करतीं और हम तीनों भाई दौड़-दौड़ कर उनका हाथ बँटाते रहते. दो-तीन दिनों के
बाद एक शाम हमने अम्मा से कहा कि आज हम आटा गूँथते हैं. अम्मा ने मना किया कि अभी तुमसे
ऐसा हो नहीं पायेगा पर हमने भी ऐसा करने की ठान ली. अपने नियत समय पर दीदी को भी आना
था तो यह भी पता था कि उनके आते ही हमारा यह विचार खटाई में पड़ जायेगा. हमने अपने कार्य
को करने के लिए पूरा मन बना लिया था. इससे पहले कभी भी आटा गूँथा नहीं था सो मन में
कुछ ज्यादा ही उत्साह था. यह भी विचार आ रहा था कि हम अम्मा का एक काम तो कर ही सकते
हैं. अम्मा आँगन में चारपाई पर लेटीं थीं और हम जमीन पर आटा, परात, पानी का जग लेकर
बैठ गये. अम्मा ने जितना बताया उतना आटा परात में डालकर उसमें पानी मिलाया.
अब शुरू हुई हमारी
आटा कहानी, पानी डरते-डरते डाला तो कम तो होना ही था. अम्मा के निर्देश पर थोड़ा सा और
पानी डालकर गूँथना शुरू किया. आटे का स्वरूप कुछ-कुछ सही आने लगा पर अभी पानी की कमी
लग रही थी. अम्मा के कहने पर फिर पानी डाला और हाथ चलाने शुरू किये. अब लगा कि पानी
कुछ ज्यादा हो गया है. जब पानी ज्यादा हुआ तो थोड़ा सा आटा मिला दिया. हाथ चलाये तो
लगा कि आटा ज्यादा है, फिर पानी की धार.
ऐसा तीन-बार करना
पड़ गया. आटा, पानी.... पानी, आटा होते-होते आटा अन्ततः गुँथ तो गया
किन्तु बजाय हम चार-पाँच लोगों के कम से कम आठ-नौ लोगों के लिए काफी हो गया. अब क्या
हो? याद आये फिर भले पड़ोसी. दीदी को आवाज दी, जितना आटा हम लोगों के काम आ सकता था उतना तो निकाला शेष दीदी के हवाले कर
दिया. दीदी ने मुस्कुराते हुए शाबासी भी दी और अम्मा ने भी हौसला बढ़ाया. इसका परिणाम
यह निकला कि अगले दो-चार दिन आटा-वृद्धि के बाद हमने आटा भली-भाँति गूँथना सीख लिया.
इस सीख का सुखद फल हमें तब मिला जब हम पढ़ने के लिए ग्वालियर साइंस कॉलेज के हॉस्टल
में रहे. मैस के लगातार बन्द रहने के कारण पेट भरने में इस आटा-कहानी ने बड़ी मदद की.