Wednesday, 22 April 2015

तमन्ना है आसमां के पार जाने की

चंद पलों की अपनी विषम स्थिति में ऊपर से गुजरती ट्रेन की गति से भी तेज गति से न जाने क्या-क्या सोच लिया गया था. कुछ समय बाद कार जिस तेजी से कानपुर के लिए दौड़ रही थी, उससे कहीं अधिक तेजी से दिमाग दौड़ रहा था. कुछ होने नहीं देना है, कुछ होगा नहीं, कुछ होने नहीं देंगे की जिद सी लिए साँसों को अपने आपमें थामते चले जा रहे थे. रास्ते भर की मजबूत, विश्वासपरक स्थिति हॉस्पिटल के सामने एक पल को उस समय कमजोर लगी जब अपने सामने मुन्नी जिज्जी, जीजा जी (श्री रामकरन सिंह) को खड़े पाया. प्यास लगने की इच्छा और पानी नहीं पिलाने की हिदायत एक साथ होंठों पर प्रकट हुई. जिज्जी के प्यार भरे स्नेहिल हाथ ने जैसे हाँफती-टूटती साँसों को नया जीवन दे दिया हो. स्ट्रैचर पर लेटे उस एक पल से लेकर हमारे कृत्रिम पैर के सहारे खड़े होकर चलने तक जिज्जी-जीजा जी का स्नेहिल हाथ पल भर को भी अलग न हुआ.  

अपने अभिन्न मित्र रवि और अन्य लोगों की सलाह पर कानपुर स्थित एलिम्को में कृत्रिम पैर बनवाने को अंतिम मुहर लगी. कृत्रिम पैर बनवाने की प्रक्रिया क्या होगी? उसके सहारे कैसे चला जायेगा? चल भी पाएंगे या नहीं? और भी तमाम सवाल खुद से करते और फिर खुद से ही उनके जवाब देते. एलिम्को में कृत्रिम पैर बन जाने के बाद वहाँ ही चलने-चलाने का अभ्यास वहीं के चिकित्सकों एवं अन्य योग्य स्टाफ की देखरेख में किया जाता है. सम्बंधित व्यक्ति के चलने सम्बन्धी दोषों को पूरी तरह समाप्त करने के बाद वहाँ से जाने की अनुमति मिलती है.

एलिम्को पहुँचने के बाद लगा कि एकमात्र हम ही ऐसी स्थिति से पीड़ित नहीं हैं. चार-पाँच साल की मासूम बच्ची को वहाँ कृत्रिम पैर लगवाने के लिए आते देखा तो लगभग सत्तर वर्ष की वृद्ध महिला को चलने का अभ्यास करते पाया. कोई युवा एक कृत्रिम पैर के सहारे चल रहा है तो कोई युवती दोनों कृत्रिम पैरों से. किसी ने दुर्घटना में अपना पैर खोया है तो कोई किसी बीमारी के कारण अपंगता का शिकार हो गया. कोई अकेले आ रहा, किसी के साथ उसके वृद्ध माता-पिता, किसी के भाई, किसी का दोस्त. संसार के जितने रंग समझ सकते हैं, एलिम्को के भीतर उतने दिनों में उतनी तरह के दर्द दिखाई दिए.

कृत्रिम पैर बन जाने के बाद लगभग पच्चीस दिन तक नियमित रूप से कृत्रिम पैर द्वारा चलने का अभ्यास करने वहाँ जाना पड़ा. इसके लिए जीजा जी हमारे सारथी बने और जिज्जी उसी तरह से मातृत्व भाव से देखभाल करने में तत्पर रहीं जैसे कि हमारे बचपन में रहती थीं. कब जूस पीना है, कब कुछ खाना है, कितनी देर चलने का अभ्यास करना है, कितनी देर आराम करना है, किस तरह चलना है, सही चलना हो रहा या गलत इसका ध्यान जीजा जी-जिज्जी द्वारा ऐसे रखा जाता जैसे कोई बच्चा घुटनों चलने के बाद खड़े होकर चलना सीख रहा हो. वैसे सही में ऐसा हो भी रहा था.

कभी मैदान पर पाँच हजार, दस हजार मीटर की दूरी को हँसते-हँसते नापने वाला एथलीट एलिम्को स्थित दो स्टील बार के सहारे दर्द को पीते हुए चलने का अभ्यास कर रहा हो तो उसकी देखभाल एक बच्चे की तरह ही होगी. एलिम्को से निकलते ही सच्चे साथियों की संख्या में दो साथियों की वृद्धि हो गई. अब कृत्रिम पैर और छड़ी भी आजीवन सच्चे साथियों में शामिल हो गए थे. इन दो साथियों ने न केवल चलने में मदद की वरन दाहिने पैर के एक पल को भी बंद न होने वाले बेइन्तिहाँ दर्द से दोहरे होते शरीर को संतुलित बनाये रखने में भी अपना सहयोग दिया.

ज़िन्दगी कब क्या दिखाए, कहा नहीं जा सकता है. एक पल में देखे-बुने सपने ध्वस्त हो जाते हैं. अचानक से वह स्थिति सामने खड़ी हो जाती है, जिसके बारे में कभी सोचा भी नहीं होता है. जीवन की यही अनिश्चितता व्यक्ति को यदि डराती है तो उसे आगे बढ़ने का हौसला भी देती है. उसके भीतर जिजीविषा का संचार करती है. कल क्या होगा, अगले पल क्या होगा इसके बारे में महज पूर्वानुमान किया जा सकता है. अपने इसी पूर्वानुमान को सच करने के लिए वह निरन्तर प्रत्यनशील रहता है. जागती आँखों से सपनों को देखना और फिर उनको सच करने के लिए लगातार प्रयासरत रहना ही किसी भी व्यक्ति के जीवन का हिस्सा बन जाता है. ऐसे ही अनेक सपने सच करने की कोशिश में वहाँ तमाम लोगों को देखा. हमारी भी ऐसी ही कोशिश लगातार जारी है.

Saturday, 4 April 2015

बाल मन की वो नादानी


बचपन के आरम्भिक दिन किराये के मकान में गुजरे. मकान, मकान-मालिक, मोहल्ला, मोहल्लावासी इतने अच्छे और भले थे कि जब तक हम लोग वहाँ रहे महसूस ही नहीं हुआ कि हम लोग किरायेदार हैं. वैसे भी तब हमारी समझ में थी ही नहीं मकान-मालिक और किरायेदार की अवधारणा. हमें तब भी वह मकान अपना सा लगता था, आज भी उस मकान को छोड़े तीन दशक होने को आये पर अपना सा ही लगता है. और लगे भी क्यों नहीं, एक हमने ही नहीं हमारे परिवार के बहुत से लोगों ने अपना बचपन, जवानी उसमें गुजारी है. हम भाई-बहिनों ने उसी आँगन में, उसी छत पर दौड़ना, चलना, गिरना सीखा.

हमारे मकान-मालिक अपने समय के जाने-माने अधिवक्ता थे. पैतृक संपत्ति की कोई कमी नहीं थी. गाँव भी पास में था. अच्छी खासी खेतीबाड़ी थी. उरई स्थित उनका बड़ा मकान इसका उदाहरण भी था. इसके साथ ही उनकी सम्पन्नता को इस रूप में समझा जा सकता था कि उस समय वे एम्बेसडर कार के मालिक भी हुआ करते थे. उनका अपने स्वभाव के विपरीत अदालत जाना, गाँव जाना, बाजार जाना आदि कार से ही हुआ करता था. स्वभाव के बारे में आम धारणा यह बनी थी कि वे कंजूस प्रवृत्ति के हैं. न सिर्फ उनके लिए बल्कि उनकी पत्नी के लिए भी मोहल्ले में ऐसी धारणा बनी हुई थी. उम्रदराज होने के कारण वे दोनों लोग मोहल्ले में बहुतों के चाचा-चाची थे और हम बच्चों के बाबा-दादी हुआ करते थे. हम उनको वकील बाबा कहकर पुकारते थे. 

परिवार के नाम पर उनके दो भाई और इनका भरा-पूरा परिवार उरई में ही आमने-सामने निवास करता था पर वे दोनों जन परिवार के नाम पर दो ही प्राणी थे. उनकी उम्र का तकाजा था या फिर उनकी प्रवृत्ति की वास्तविकता, एक दिन पता चला कि वकील बाबा ने अपनी सफ़ेद एम्बेसडर बेच दी. अब उनका स्थानीय यातायात का साधन साइकिल हो गया. यदाकदा उनकी कार में घूमने के कारण उनकी कार का न रहना बुरा लगा. ये भी बुरा लगा कि अब कार में घूमना नहीं हो पायेगा. बालमन, जो आर्थिक ताने-बाने को समझता न था, एक दिन हमने घर आकर अम्मा से कहा, वकील बाबा ने अपनी कार बेचकर साइकिल खरीद ली है. पिताजी से कहो कि अपनी साईकिल बेचकर कार खरीद लें. अम्मा ने उस समय हँसकर बहुत लाड़ से सिर पर हाथ फिरा दिया. बाद में जिस-जिसने हमारी बात को सुना, खूब हँसा. अम्मा के साथ-साथ बाकी लोगों के हँसने का कारण तब तो समझ नहीं आया मगर जब कार-साइकिल का अर्थ हमें खुद समझ आया तो अपने उस बालमन के समीकरण पर खुद भी हँसे बिना न रहा गया.