Wednesday, 25 June 2014

बच्चों के स्नेह, सम्मान ने ले लिया पहला ऑटोग्राफ


बचपन में लगभग नौ-दस वर्ष की उम्र में ही घरवालों, पड़ोसियों, स्कूल वालों, दोस्तों आदि की तरफ से खूब जमकर प्रशंसा पाई थी, जबकि उस समय हमारी स्व-रचित एक कविता दैनिक भास्कर, स्वतंत्र भारत में बच्चों वाले पृष्ठ पर प्रकाशित हुई थी. उस कविता प्रकाशन पर सभी ने खूब प्रशंसा की थी. हमें खूब सारा आशीर्वाद भी मिला था. उसके बाद पढ़ाई के बोझ ने लेखन क्षमता को पूरी तरह से पनपने न दिया. इस बीच पेंटिंग, स्केचिंग, निर्देशन, फोटोग्राफी आदि सहित अन्य और भी शौक गले लग गए.

स्कूल से निकल कर कॉलेज पहुँचने के क्रम में लिखना लगातार हुआ, भले ही कम रहा हो परन्तु प्रकाशन नहीं हो सका. स्नातक उपाधि के बाद लेखन की तरफ पुनः मुड़ना हुआ. पत्रिकाओं को रचनाएँ भेजने के साथ ही समाचार-पत्रों में पत्र कॉलम में नियमित रूप से लिखना शुरू किया. पत्रिकाओं में सीमित प्रकाशन स्थान मिलता किन्तु समाचार-पत्रों ने प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया. अमर उजाला ने तो हमारे बहुत सारे पत्रों का प्रकाशन ख़ास ख़त कॉलम के अंतर्गत भी किया. इन पत्रों को पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित भी करवाया जा चुका है.  

अमर उजाला के साथ-साथ दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, आज, राष्ट्रीय सहारा आदि में भी नियमित प्रकाशन होने लगा. जनपद जालौन में हमको हमारी पारिवारिक पृष्ठभूमि से इतर हमारे दो कार्यों ने हमारी पहचान की आधारभूमि निर्मित की. इनमें एक तो पत्र कॉलम में नियमित पत्रों का प्रकाशन और दूसरा कन्या भ्रूण हत्या निवारण कार्यक्रम का तब आरम्भ करना जबकि इस दिशा में किसी भी तरह का कार्य जनपद में नहीं हो रहा था. फिलहाल तो अपनी मूल बात से न भटकते हुए आपको अपनी उस ख़ुशी की तरफ ले चलते हैं जो हमें हमारे प्रशंसकों से प्राप्त हुई.

नेहरू युवा केंद्र की ओर से राष्ट्रीय पुनर्निर्माण वाहिनी परियोजना जिले में संचालित हो रही थी. परियोजना समन्वयक प्रवीण सिंह जादौन छोटे भाई के मित्र हैं और हमारे लिए भी छोटे भाई के समान ही हैं. सामाजिक कार्यों से जुड़े होने के कारण हमको भी परियोजना की एक समिति का सदस्य मनोनीत किया गया था. सौ स्वयंसेवकों का दस दिवसीय प्रशिक्षण कार्यक्रम उरई से लगभग सात-आठ किमी दूर बोहदपुरा गाँव के राजकीय प्रशिक्षण संस्थान में चल रहा था. वहां के कार्यक्रम के सञ्चालन, स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित करने की, उनको विविध विषयों पर जानकारी देने जिम्मेवारी हमें भी दी गई थी.

शिविर के दस दिनों तक स्वयंसेवकों के साथ रहने से उनके साथ आत्मीय सम्बन्ध बन गए थे. दस दिनों तक सञ्चालन करने, कई विषयों पर जानकारी देने के कारण बहुत से स्वयंसेवक काफी करीब से जुड़ गए थे. आये दिन किसी न किसी विषय पर वे अलग से मिलकर अपनी जिज्ञासाओं का समाधान चाहते. वो शिविर का अंतिम दिन था. परम्परानुसार समापन समारोह हुआ. समापन समारोह के बाद लोगों को अपने-अपने क्षेत्र में कार्य करने जाना था. स्पष्ट था कि अब सभी का इस तरह से एकसाथ मिलना शायद ही कभी-कभी हो पाए. स्वयंसेवक, अधिकारीजन, अतिथिजन एक-दूसरे से मिलते हुए चलने की तैयारी में थे. 

हम भी सबसे मिलते हुए चलने की तैयारी किये थे. उसी समय चार-पाँच लड़के-लड़कियों का एक समूह आया. लड़कियों ने सम्मानपूर्वक नमस्कार किया और लड़कों ने एकदम से पैर छू लिए. इस तरह के कृत्य का अंदाजा न होने के कारण हम खुद एकदम से हड़बड़ा गए. कुछ बातचीत हो पाती इससे पहले ही उन सभी बच्चों ने अपनी-अपनी डायरी हमारे सामने करके ऑटोग्राफ की माँग कर दी. हमने पहले तो हँसकर उन बच्चों को टालने की कोशिश की. उनको समझाया कि हम ऐसे व्यक्ति या व्यक्तित्त्व नहीं कि हमारे ऑटोग्राफ लिए जाएँ. उन बच्चों ने बड़ी ही शालीनता से, सम्मान से हमारे लेखन, समाचार-पत्रों में हमारे पत्र प्रकाशन का हवाला देते हुए उनसे बहुत कुछ सीखने की बात कही. विगत दस दिनों में हमारे सञ्चालन, विषयों पर दिए गए प्रस्तुतिकरण से प्रभावित होना बताया.

अपने प्रति उनका स्नेह, सम्मान देखकर मन बहुत प्रसन्न हुआ. बच्चों में उत्साह दिख रहा था हमारा ऑटोग्राफ लेते समय और उन सभी बच्चों को अपने जीवन का पहला ऑटोग्राफ देते समय हमें भी खुद में रोमांच हो रहा था. अपने आपको किसी विशिष्ट व्यक्तित्व से कम न समझते हुए लगा कि अभी तक पत्र कॉलम में जो भी लिखा-छपा वो निरर्थक नहीं गया. विचारों की शक्ति सामाजिक परिवर्तन करती है, मानसिक परिवर्तन करती है. हमारे विचारों से उन बच्चों ने क्या सीखा ये तो वही जानें मगर अपने लिए उनके मन में सम्मान की भावना देखकर सुखद अनुभूति हुई.


Tuesday, 10 June 2014

कुछ सच्ची कुछ झूठी के आवरण में


अपने बारे में कुछ लिखने का, अपने बारे में सबको बताने का विचार बहुत दिनों से या कहें कि बहुत वर्षों से मन में था पर अभी इस उम्र में ही अपने बारे में कुछ लिखने-कहने के बारे में सोचा नहीं था. कई-कई जीवनियों, कई-कई संस्मरणों, कई-कई महानुभावों को पढ़ने के दौरान मन कहता था कि कभी लोग हमारे बारे में भी ऐसे ही पढ़ेंगे. हमारे बारे में भी ऐसे ही चर्चा करेंगे. यह भी सोचा करते थे कि जब हम अपनी कहानी लिखेंगे तो उसको किस शीर्षक के भीतर समेटेंगे? जब हमारी बात किसी पुस्तक के रूप में सामने आएगी तो लोगों के सामने उसे किस नाम से लायेंगे? जितनी बड़ी समस्या अपने बारे में लिखने-बताने की थी, उससे कहीं बड़ी समस्या पुस्तक के शीर्षक को लेकर थी. 

समस्या का समाधान कोई और कर भी नहीं सकता था क्योंकि समस्या किसी के सामने प्रकट भी नहीं की गई थी. यार-दोस्तों के बीच रखी भी नहीं थी. ऐसे में हमारी ही समस्या और हमारा ही समाधान जैसी बात होने के कारण उसका समाधान हमें ही निकालना था. समस्या का समाधान यह निकला कि जब आत्मकथा लिखी जाएगी, जब अपनी कहानी कही जाएगी तो उसका नामकरण उसी समय कर दिया जायेगा. अपनी कहानी लिखना भविष्य का प्रोजेक्ट था, सो उसका नामकरण भी भविष्य के गर्भ में डाल दिया गया. 

समय बदलता रहा, परिस्थितियाँ बदलती रहीं, उम्र बदलती रही, हम बदलते रहे और इस अदला-बदला में विचार भी बदलते रहे. उम्र के तीन दशकों की यात्रा के बाद सोचा कि अब कुछ लिखा जाये पर लगा कि अभी कुछ ज्यादा ही जल्दी हो जाएगी. इतनी जल्दी भी लोगों का सिर नहीं खाना चाहिए. लोगों को पकाना नहीं चाहिए. इसके बाद एक दशक के इंतजार के बाद इस पड़ाव पर आकर सोचा कि अब न देर है और न ही जल्दी. अब कुछ लिखा जा सकता है. लोगों को अपने बारे में बताया जा सकता है. 

क्या लिखा जाये? क्या बताया जाये? क्यों बताया जाये? कैसे बताया जाये? कितना बताया जाये? इस तरह के न जाने कितने प्रश्नों ने अपना सिर उठाया. एक पल में चार दशकों की यात्रा आँखों के सामने से घूम गई. बहुत कुछ सुखद, बहुत कुछ दुखद, कितना अपनापन, कितना बेगानापन, कितनी सफलताएँ, कितनी असफलताएँ, कितने आरोप, कितने प्रत्यारोप, कितनों का मिलना, कितनों का बिछड़ना, क्या-क्या सीखना, क्या-क्या सिखाना, क्या-क्या बनाना, क्या-क्या बिगाड़ना, क्या-क्या हासिल हुआ, क्या-क्या खो दिया, कितना लाभ, कितनी हानि आदि का हिसाब-किताब दिमागी कैल्क्यूलेटर पर होने लगा.

क्यों? क्या? कैसे? किसको? आदि ने डराया भी. बहुत से नकाब उतरने का संकट दिखाई दिया. खुद अपने को भी कमजोर देखा. अपनों की टूटन दिखाई देने लगी. विचार काँपे. हाथ काँपे. कलम ने चलने को मना किया पर वर्षों की मनोच्छा को पूरा करना था, सो हिम्मत बांधी. विचारों को थाम विचारों को ही टटोला. शीर्षक के बहाने एक आवरण खोज निकाला और फिर कुछ सच्ची कुछ झूठी कहने बैठ गए.